Monday, October 27, 2014

नित्या मत बनो




उसका आना मुझे अजीब लगता था, शायद मुझे पसंद नहीं था. हर बार पुणे आकर मुझसे मिलना! मैं इसका कारण भी जानना चाहता था.

आज भी अपना काम ढंग से नहीं कर पाया. बॉस से थोड़ी कहा-सुनी हुई. आईटी इंडस्ट्री में यही एक प्रॉब्लम है, टाइम लाइन बहुत टाइट रहती है. हर हाल में वक़्त पे काम कर के देना है.

ठीक सात बजे में कॉफ़ी कैफ़े में था. मुझे पता था वो इंतज़ार करती मिलेगी.

'क्या काम है?' मैंने तल्ख़ी से से कहा.
'कुछ नहीं, यहां आई थी तो सोचा मिल लूँ.' उसने दो कॉफ़ी आर्डर करते हुए कहा. मैंने उसकी ओर गौर से देखा. वो गहरी हरी ड्रेस में बेहद खूबसूरत लग रही थी. उसके चेहरे का लावण्य (ग्लो) देख कोई भी कह सकता था कि उसकी अभी अभी शादी हुई है.
'तो आज फिर से ऑफिस से सीधे यहां?' उसने बाजुओं में पड़ी ढेर साडी चूड़ियाँ खनकाते हुए कहा.
'तुम यहां क्यों आये हो?' मैंने उसका प्रश्न इग्नोर करते हुए सीधे पूछा.
'लुक, तुम्हें पता है, मुझे पता है, फिर क्यों पूछ रहे हो?'
'देखो जो है वो ठीक नहीं है नित्या. कभी न कभी तो निशांत को पता चलेगा ही. तब क्या होगा?'
'तो क्या होगा? वो मुझे तलाक़ दे देगा और मैं सुबोध से शादी कर लूंगी. वो तो वैसे भी तैयार है ही. और हाँ इस बार मम्मी कुछ नहीं बोलेगी. तलाक़ निशांत देगा तो मैं बेचारी जो कहलाउंगी.'

नित्या की शादी निशांत से हुई थी. तीन महीने पहले. नित्या को सुबोध पसंद था लेकिन उसकी माँ नहीं चाहती थी कि वो एक स्ट्रगलर से शादी करे. सुबोध अब भी अपना बिजिनेस जमा रहा था. निशांत आईआईएम से पढ़ा है, मुंबई में एक बड़े बैंक में कार्यरत है. मोटी तनख्वाह, बड़ा घर. बस नित्या की माँ को लड़के में यही चाहिए था. उन्होंने नित्या की शादी निशांत से कर दी. सुबोध देखता रह गया, नित्या मना करते रह गई.

हमारी कॉफ़ी आ चुकी थी. 'क्या बहाना कर के पुणे आती हो?' मैंने पूछा.
'तुम, कभी रीना कभी कुछ और बहाना. मुझे पता है मैं गलत करती हूँ लेकिन सुबोध मेरे बिना जी नहीं पायेगा, न मैं उसके बिना. न चाहते हुए भी आ जाती हूँ. वैसे भी हमारी गलती नहीं थी.'
'वो तो निशांत की भी नहीं है कि उसकी बीवी किसी और से मिले.'
'जज मत बनो विशाल. मैं तुमसे इसलिए मिल लेती हूँ कि मन हल्का हो जाता है. तुम ही तो हो जो समझते हो हमें. मुझे और सुबोध को.'
मैं शांत रह गया. कुछ मिनट बस हम कॉफ़ी पीते रहे.

'तुमसे कुछ कहना है.' उसने शुरुआत की. 'रीना का पति जर्मनी गया है शोर्ट टर्म के लिए. अकेली है वो.'
'तो मैं क्या करूँ?'
वो तुमसे अब भी प्यार करती है. तुम भी.....'
'मैं नहीं करता.'
आँखे मत चुराओ साफ़ लिखा है.'
'तो ये बताने आई थी तुम?'
'नहीं, ये बताने कि इस बार मैं रीना के घर ही रुकी हूँ. कल सटरडे है, शाम पार्टी रखी है. अपनी वाली पार्टी. हम पार्टी करेंगे,बिलकुल पहले की तरह.... मुझे पता है, फ़ोन करने से तुम आने से रहे इसलिए मिलने चली आई. हाँ आना. कम से कम पुराने दिनों के खातिर.'

पुराने दिन....रीना और नित्या फ्लैटमेट थे. 2BHK फ्लैट. हम सब शनिवार को मिलते थे, उनके फ्लैट में. मैं, रीना, नित्या और सुबोध. सबके सब छोटे शहरों से आये थे. रीना और में स्कूल से प्यार में थे, सुबोध और नित्या कॉलेज से. हर शनिवार को हम बैठ के पीते थे, गप्पे करते थे, सोते थे. नित्या की शादी जबरदस्ती करा दी गई. छोटा शहर, इश्क़ गुनाह, ढेरों बातें और बस. मुझे पता था मेरी नियति में भी यही कुछ लिखा है. खैर हम भी कब तक अपनी खैर मनाते. जात-पात के तमाम हवाले देकर रीना की शादी भी करा दी गई. मैंने बहुत मेहनत की रोकने की, सब बेकार. मैं बस अपने इश्क़ को ढलते देख सकता था, बचा नहीं सकता था. मैं उसके माँ-बाप के खिलाफ जाकर शादी नहीं करना चाहता था, और उसके माँ-बाप जाति के बाहर उसकी शादी नहीं करना चाहते थे. रीना प्रैक्टिकल थी, पहले उसने मुझे चार गलियां दी, दो बार उसूलों की पोटली कहा और एक झटके में  मेरे से ढाई गुना कमाने वाले अमित से शादी कर ली.
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मैं अपने रूम आ गया. रीना के घर आना नहीं चाहता था. उसकी शादी के बाद इन दो महीनों में मिला भी नहीं था, फ़ोन भी नहीं किया था. उसका घर भी नहीं पता था. थकान और कशमकश में कब नींद आ गई पता भी नहीं चला.
सुबह मोबाइल में दो मैसेज पड़े थे. नित्या ने रीना के घर का पता भेजा था. दूसरा मैसेज सुबोध का था- 'प्लीज, मेरे खातिर आ जा.'

शाम को सुबोध का फ़ोन आया. उसे पिक करना था. मैंने कार उठाई, सुबोध को लिया और रीना के फ्लैट पे पहुँच गया. वहां दोनों ने पहले से सारे इंतज़ाम कर रखे थे.मैंने रीना का फ्लैट देखा. उसने ख़ूबसूरती से उसे सजाया था. दीवारों पे मेरे द्वारा खींचे उसके खूबसूरत फोटो लगे हुए थे. एक-दो फोटो अमित के साथ थे, किसी हिल स्टेशन के. शायद हनीमून ट्रिप के थे.

हम पुराने माहौल में आ गए. रीना ने गिलास भरे, सुबोध ने अपने लिए सिगरेट सुलगाई और फिर वही पुरानी बातें. बीते दिन जैसे हमारी आँखों के सामने से फिर घाट रहे थे.लोनावला के सारे ट्रिप एक एक कर के याद किये.

'हम तेरे बैडरूम जा रहे हैं.' नित्या ने कहा. सुबोध और वो रीना के बैडरूम में चले गए. मैं उन्हें जाते घूर रहा था.
'ऐसे मत घूरो, ये पहली बार तो नहीं है उनके लिए.' रीना ने कहा.
'हम्म..' कह मैं वहीं लेट गया. शायद कुछ पीने का असर था और कुछ हफ्ते भर की थकान का.


मुझे अजीब सा लगा. मेरी आँख खुल गई. मेरे होंठो पे रीना के होंठ रखे हुए थे. 'ये क्या है?' मैंने उसे झटकते हुए कहा. मेरी दारू यकायक से उतर गई थी, मैं खड़ा हो गया.
'आई स्टिल लव यू विशाल.' वो मुझसे गले लगते बोली. 'फिर ये पहली बार तो नहीं है. शादी से पहले भी तो....'
मैंने उसे जोर से झिटका. वो अलग हो गई. 'शादीशुदा हो तुम. नित्या बनने की कोशिश मत करो. मैं सुबोध नहीं हूँ.' मैंने गुस्से से बोला और तेज़ी से बाहर निकल गया.

रीना फर्श पे गिरी हताश मुझे जाते देख रही थी. शायद वो बुदबुदाई... शायद उसने 'ब्लडी उसूलों की पोटली' कहा था.


[Pic: Unfaithful film में Diane Lane. ]

Saturday, October 18, 2014

आत्मकथा



'तुम अब क्या करोगे?' उसने मुझे चूमते हुए कहा.
'बाद में बताता हूँ.' मैंने उसे चूमा.
हम दोनों आधे घंटे बाद नीले चादर में लिपटे छत ताकने लगे. इस तरह के कर्म के बाद लोगों को चाँद- तारे नज़र आते हैं, जिन्हें वे औकाद से बाहर जा तोड़ लाने की बात करते हैं..... लेकिन मुझे बस एक छत नज़र आ रही थी. उसकी खूबसूरत सी सीलिंग पे सफ़ेद पंखा लटक रहा था.
'कल मुझे एक दाढ़ी वाले नेता का इंटरव्यू लेना है.' उसने कहा.
'क्या पूछोगी?' वैसे ये नाहक ही घटिया सवाल था. इंटरव्यू उसे लेना था लेकिन प्रश्न किसी और को लिखने थे, ये मैं जानता था.
'पूछने को तो पूछ लूँ कि दंगे-फसादों में साथ न भी दिया हो तो भी मुख्यमंत्री रहते उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही थी. निष्फलता ही तो है उनकी ये. जब भी मैं मोहल्ले की लड़कियों को पीट के आती थी, मेरा बाप जिम्मेदारी लेता था. तुम्हें नहीं लगता, उसे ऐसा करना चाहिए था?' उसने मेरी तरफ आँखे कर कहा.
मेरी आँखें उसकी आँखों से मिली, हम एक दूसरे को तकते रहे, मैंने फिर उसे चूमा और बस 'नहीं.....' कहा.

उस दिन उसने लाइव इंटरव्यू में ऐसे ही ऊट-पटांग सा सवाल पूछ लिया. मैंने टीवी पे देखा था. इंटरव्यू निहायत ही अच्छा बन पड़ा था. दूसरे चैनल्स को ब्रेकिंग न्यूज़ मिली. कृति को इंटरव्यू लेने के बदले में इनाम के तौर पे टीवी एडिटर की दो भद्दी गालियां मिली, तीन महीने की सैलरी और नौकरी से निकाले जाने का पत्र मिला. मुझे कुछ कुछ कृति पे तरस आया, कुछ कुछ टीवी एडिटर पे हंसी. अब हम दोनों ही बेरोजगार हो गए थे.

'आगे क्या करेंगे अब?' उसने घर आते ही पूछा.
'मैं हमेशा की तरह तुम्हारे लिए खाना बनाऊंगा, तुम टीवी देखना फिर हम सोने चले जायेंगे.' मैं मुस्कुराते हुए जवाब दिया.
'बेवकूफ, अपनी ज़िन्दगी का.'
'तुम्हें पता है दंडकारण्य में हर दिन 20 आदिवासी मरते हैं. वर्धा मेरे साथ काम करने चलोगी?' इस तरह का प्रश्न आज पूछना ऐसे ही था जैसे कि बम को आग लगाना और चुपचाप उसके पास बैठ उसके फटने का इंतज़ार करना.
'ब्लडी लेफ्टिस्ट....' उसने मेरी तरफ गुस्से में अपना हैंड बैग फेंका. भला हो बचपन में क्रिकेट खेलने का कि मैंने उसे खूबसूरती से साथ कैच कर लिया.

वो मेरे पास आई. मुझसे चिपट गई. मैं उसे ढांढस बँधाना चाहता था. कहना चाहता था कि ये सिर्फ एक नौकरी है जो फिर से आ जाएगी. दुनिया चौराहा है और नौकरी ऑटो, और चौराहे पे हम दूसरी ऑटो पकड़ सकते हैं. लेकिन मुझे पता था ये सच नहीं है. इसलिए मैंने सिर्फ उसकी पीठ सहलाई.

'तुम्हें पता है न तुम्हारा लिखा अब कोई पब्लिश नहीं करता, तुम्हारी किताबें और पुतले बीच बाजार जलाये गए हैं और तुम्हारा कॉलम अब कोई अख़बार प्रकाशित नहीं करना चाहता.' उसने मुझे हक़ीक़त बताई. वही हक़ीक़त जो दो साल से घर में बैठा उसकी नौकरी के बल पे जी रहा था.

'मैंने जिन के बारे में लिखा है वो मारे गए हैं. नक्सली हमने पैदा किये. गरीबी ने आठ हज़ार में जान देने वाले सी. आर. पी. ऍफ़. के लोग हमने बनाये. अब कोई भी मरे मरेंगे हम ही न, हमारे लोग ही न. हमारे नागरिक ही न.' मैंने उससे वही बात दोहराई जो मैं पिछले पांच सालों से अख़बारों के कॉलम में लिख रहा था. किताबों में जुबान दे रहा था और जिसकी वजह से आज बेरोजगार था.

'हम जिम्मेदार नहीं हैं, न तुम, न मैं. ये खादी वाले ज़िम्मेदार हैं,  बिजिनेसमैन जिम्मेदार हैं. हम नहीं.'

'तो तुमने आज दाढ़ी वाले नेता से उसकी जिम्मेवारी क्यों मांगी?'

'क्यूंकि मैं भी इंसान हूँ और मेरा भी दिल इन घटनाओं से दुखता है. लेकिन मैं तुमसे अलग हो के नहीं जी सकती न तुम अकेले काम कर पाओगे. मैं वहां भी नहीं जा सकती, क्यूंकि मैं माँ हूँ और कृतिका उस वीराने में न पढ़ पायेगी न रह पायेगी. डेंगू, मलेरिआ, मच्छर.....कैसे रहेगी वो?'

मैं निढाल हो बैठ गया. दो साल कि मेरी कृतिका का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था. 'मुझे अपनी बेटी की तरह वहां मरने वालों के बच्चों की भी फ़िक्र है.' मैंने कहा. वो चुप थी और अगले कई दिनों चुप ही रही. जब तक कि मैं चला नहीं गया. इस बीच उसके पिता आये. उन्होंने कृतिका और  कृति को अपने साथ चलने को कहा. मेरे पास भी बैठे. हम चुप ही बैठे रहे. 'तुम गलत नहीं हो लेकिन इस वक़्क़त सही भी नहीं लग रहे.' उन्होंने कहा और चुप्पी में ही चले गए.

आप मुझे पलायनवादी कह सकते हैं. बेवकूफ कह सकते हैं. कृतिका 15 साल बाद समझदार होने पे भगोड़ा कह सकती है....और मैं अपने आप को भी इसके आस-पास ही समझता हूँ. लेकिन बेवकूफी सर पे चढ़ती है तो हम इंसान नहीं रह जाते. लोगों के लिए तो नक्सली भी इंसान नहीं है. फ़िलहाल, देवपुरिया गांव में जा मैंने एक स्कूल खोला. शुरू में दस फिर पच्चीस और सात साल गुज़रते ढाई सौ बच्चे उसमें पढ़ने आने लगे. कुल आठ गांव से बच्चे आते थे. कुछ अध-पढ़े आदिवासी भी साथ पढ़ा रहे थे. इन सालों में मैंने कितनी मेहनत की वो बता मैं अपना दीर्घ-संघर्ष नहीं बताना चाहता लेकिन मैंने जिनके बारे मैंने लिखा, जो सोचा और जो अपने कॉलम से सबको करने को कहा, वही मैं कर रहा था. मेरा लिखा व्यर्थ नहीं था और मैं कोरा लेखक बस नहीं था, आप ये मान सकते हैं. हर दिन देश की समस्याओं पे कॉफ़ी टेबल डिस्कशन करने वाले मेरा नाम ले सकते हैं लेकिन सरकार की नज़र में मैं नक्सली था. मेरा स्कूल तीन बार तबाह किया गया. दो बार मुझे जेल में ठूंसा गया और एक बार कंधे पे गोली मारी गई.

एक दिन सारी हदें पार हो गई. एक केंद्रीय स्तर के नेताजी ने कुल चालीस लठैत भेजे जिन्होंने अस्सी झोडियों के गांव को तहस-नहस कर डाला. स्कूल की ऐसी हालत की गई की वो देखने लायक नहीं बचा. गांव के लोग अब अध-पढ़े थे तो हम सबने मिलकर पुलिस से शिकायत की. लेकिन उसी रात मेरे स्कूल की बाइस साल की अध-पढ़ी शिक्षिका का बलात्कार हुआ. नेताजी का भतीजा, पुलिस और लठैत पोलिस थाने में अस्मिता लूट रहे थे. थाने की दीवार पे लिखा था- "सदरक्षणाय खलनिग्रहणाय" यानि 'अच्छे की रक्षा और बुराई को दण्डित करने के लिए.' और बगल में टूटे फ्रेम में गांधी जी की खोपड़ी चमक रही थी. मैं एक जेल में बंद था और तमाम चीखें मेरे सीने से हो दिमाग को छलनी कर रही थीं. दिल्ली की गलियों में सुना था की कभी अहमद अब्दाली ने कत्ले-आम किया था. बलात्कार किये थे, धन-दौलत लूटी थी. मेरी आँखों के सामने वो सब सच हो रहा था. उस वक़्त में दुनिया का सबसे लाचार इंसान था.

 मैं देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी का पढ़ा-लिखा नौजवान ( चौतीस के में लोग नौजवान ही होते है.) थक चुका था. शायद कोई भी थक सकता था. कोई भी मतलब कोई भी. आप भी और वो अनपढ़ आदिवासी भी जिनका सबकुछ एक झटके में छीना जाता है.

इस थके इंसान ने ज़िन्दगी का आखिरी ख़त लिखा.

'प्यारी कृति,

मुझे पता है तुम खुश नहीं हो. मुझे पता है मैं एक बेहतर पति नहीं बन पाया. एक गैर जिम्मवार पिता हूँ. लेकिन मुझे पता तुम मुझसे खफ़ा नहीं हो.... क्यूंकि तुम मेरे जैसे हो. हम एक से हैं. हमारे सीने मैं दिल है जो सिर्फ अपनों के लिए नहीं धड़कता. जो उनका दर्द भी महसूस करता है जिन्हें हम जानते नहीं हैं.

यहां के नेता 'न कोई पढ़ेगा, ना बढ़ेगा, न अपने अधिकार के लिए खड़ा होगा' नीति अपनाये हुए हैं. यकीन करो यहां की समस्याएं अगले सौ बरसों में इस तरह ख़त्म नहीं हो सकती. मेरे अकेले के प्रयास से तो बिलकुल नहीं. हाँ इन वर्षों में मैंने जिनको पढ़ाया है वो शायद खुद खड़े हो अधिकारों को बिना हथियार के पाने की कोशिश करें लेकिन मैं थक चुका हूँ. शायद दिल्ली में रह कोई भी नहीं समझ सकता मेरा थकना क्या है....शायद तुम भी नहीं.

अपना ख़्याल रखना,
विनीत सुरेश '

मैंने खत पोस्ट कर दिया. अगले दिन मैं नेताजी से मिलने गया. जैसा मैंने बताया वे एक राष्ट्र स्तर के बहुत बड़े नेता थे, जिनके चश्मे से उनकी आँखों की हैवानियत ढकी रहती थी. मैंने उनके सीने में, माथे पे, पेट में कई गोलियां दाग दीं. उतनी ही जितने में किसी की शक्ल भी पहचान में नहीं आती. मैं कितना सही था कितना गलत ये तो आप बता सकते हैं या वक़्त; लेकिन मैं यानि एक पढ़ा-लिखा शिक्षक जो अपना सर्वस्व छोड़ बहुत कुछ बदलने चला था, एक हत्यारा बन गया था. कौन जिम्मेवार है वो आप ही पता कर लेना. बाकि आगे की कहानी ये है कि मेरा हश्र वही था जो एक हत्यारे का होता है.

कुछ दिन बाद कृति का खत आया जिसमें लिखा था कि वो मुझसे आज भी उतना ही प्यार करती है और उसे मुझ पे गर्व है लेकिन वहां पढ़ने के लिए मैं नहीं था.

पंद्रह साल बाद बाईस साल की कृतिका ने मुझपे किताब लिखी- 'एक नक्सली की आत्मकथा' जिसके पहले पन्ने पे लिखा था- 'मुझे अपने पिता पे गर्व है.' आदतन उसपे भी सरकार ने बैन लगा दिया.


                                          " पापी कौन? मनुज से उसका
                                           न्याय चुराने वाला?
                                           या की न्याय खोजते विघ्न का
                                           शीश उड़ाने वाला? "
                                                                   -रामधारी सिंह 'दिनकर'


[ फोटो rediff.com से. खून है, खोके हैं.… दोनों पे नहीं लिखा कि जवान के हैं या नक्सली के… इंसान की कारगुज़ारी ज़रूर लगती है. ]

Friday, October 17, 2014

किसी की शोना




उसमें वो सबकुछ था जो एक आइडियल बन्दे में होना चाहिए. पढ़ाकू, खिलाडी, समझदार साथ में बहुत शालीन और सभ्य. सरकारी स्कूल के ढेरों बच्चे उसके जैसा बनना चाहते थे. क़स्बे के अकेले प्राइवेट स्कूल में उसका नाम मास्टर बड़ी इज़्ज़त से लेते थे. अभी अभी वो फुटबॉल में अंडर-19  में खेल के आया था और क़स्बे के लिए ये बड़ी बात थी. वो अकेला ही था जो ऐसे क़स्बे से था जहां ग्राउंड के नाम पे एक अकेला मैदान था जिसमें सारे खेल ही एकसाथ खेले जाते थे. फिर भी उसने फुटबॉल खेला, सीखा और सेलेक्ट हुआ....अपनी दम पे. मैं नौ साल का हूँ और उसके जैसा बनना चाहता हूँ.

मेरी बड़ी बहिन बला सी खूबसूरत है. उतनी ही जितनी की किसी टीवी के विज्ञापन में कोई लड़की दिखाई जाती है. बचपन में मैं समझता था उसने 'फेयर एंड लवली' लगाई है इसलिए गोरी हो गयी...अब जब थोड़ा बड़ा हुआ तो माँ कहती है की वो पैदा ही इतनी सुन्दर हुई थी. माँ ये भी कहती है की जब वो सौलह-सत्रह की उम्र की थी तो इतनी ही खूबसूरत थी. मैं नहीं मानता, क्यूंकि अब तो माँ के चेहरे पे दाग हैं...और कुछ पीठ पे भी गहरे नीले से निशान हैं. मैंने कई बार पूछा कैसे पड़े तो माँ टाल देती है.

मेरी बहन शानू दी मिस इंडिया बनना चाहती है उसने एक दफ़े मेरे से कहा था. मुझे ज्यादा पता नहीं था तो बस मैंने उससे 'ठीक है' कहा. धीमे से. बाद में उसी तरह हमारे प्रधानमंत्री ने भी 'ठीक है' कहा था. मैंने टीवी पे देखा था. शानू दी पढ़ती भी थी, प्राइवेट स्कूल में लेकिन अक्सर सरकारी स्कूल जाती रहती थी, कभी कभी मैदान में. घंटों वहां बैठी रहती थी. कभी कभी मैं भी जाता था. कभी कभी मेरा 'हीरो' फुटबॉलर भी वहाँ आ के बैठ जाता था. फिर वो दोनों बातें करते थे. मैं बस फुटबॉलर को देखता था. उसके जूते तो उसकी टी-शर्ट और उसकी फुटबॉल. लेकिन मुझे उनकी बातें समझ नहीं आती थीं. दी बड़ी जोर-जोर से उसकी बातें सुन हंसती थी. वो उसे 'शोना' कहता था.

एक दिन मैंने दी से पूछा कि तुम्हें 'शोना' क्यों कहता है. दी ने कहा 'ऐसे ही.'
मैंने पूछा कि 'मैं भी आपको शोना दी कहूँ?' 'नहीं...' दी ने कहा और बताया कि 'शोना' कहना सिर्फ हीरो का हक़ है किसी और का नहीं.
मैं हक़ की नाहक दुनिया से बाक़िफ़ नहीं था इसलिए मुझे ज्यादा समझ नहीं आया. मैं शानू दी के साथ बहुत खेलता था. लेकिन मेरा फुटबॉल खेलने का ज्यादा मन था.एक दिन हम मैदान पे गए. मेरा हीरो फिर दी के पास आ के बैठा. उन दोनों ने बातें की. मैं भी आपकी फुटबॉल से खेल लूँ?' मैंने पूछ लिया. उसने मेरी तरफ देखा और हाँ कह दिया. शानू दी मुस्कुरा दी. उस दिन से हम तीनों ही साथ रहते. मैं शानू दी और हीरो. मैं उसे 'हीरो' ही कहता क्यूंकि दी भी उसे यही कहती थी.

मैंने एक दिन दी से कहा कि वो बड़ी हो रही है, ऐसा मैंने पापा मम्मी को बात करते सुना था. उसने बस हाँ कहा. पापा को उसकी शादी की फ़िक्र है मैंने उसे ये भी बताया. वो चुप रही. मैंने कहा मुझे हीरो पसंद है तुम उससे शादी कर लेना. दी मुस्कुरा दी, मेरे सर पे हाथ फेरा और कहा कि अब रात बहुत हो गयी है हमें सोना चाहिए. हम सो गए.

मैं सुबह उठा, बगल में शानू नहीं थी. घर में हंगामा मचा हुआ था. पिता माँ से बोल रहे थे 'सब तेरी वजह से हुआ है.' उनके हाथ में डंडा था जो माँ की उघड़ी पीठ पे निशान बना रहा था. तब मुझे एहसास हुआ कि माँ की पीठ पे वो नीले निशान कैसे पड़े हैं. घर में दूर के, पास के, आस-पास के सारे चाचा जमा थे. सब माँ को पिटते देख रहे थे.

शानू भाग गयी थी. भागना बड़ा अजीब शब्द है. पी टी उषा भागे देश खुश, हमारी शानू भागे तो दुनिया दुखी. शानू मेरे फुटबॉलर हीरो के साथ भागी थी. मेरी माँ का मार के दर्द से तो कुछ शानू के लिए रो रो के बुरा हाल था. सारे चाचा शानू को और हीरो को ढूंढने लग गए थे. पुलिस भी आई, खाकी पहने. एक संतरे से नारंगी कपडे पहने आदमी भी आया. सब उसे नेताजी, नेताजी कह रहे थे. चार दिन बाद शानू घर लौटी. वो लगातार रो रही थी. मेरा बाप लगातार उसे पीट रहा था. मेरी माँ ने शानू को बचाने की कोशिश की और फिर उसकी पीठ पे दो-चार हरे-नीले निशान बना दिए गए. मेरे बाप का मन भर गया या शायद उसका हाथ दुखने लगा था तो वो बाहर चला गया. मैं शानू दी के पास गया. उसने मुझे गले से लगा लिया. वो लगातार रोये जा रही थी. मैं उसके साथ रोने लगा. माँ हमें छाती से चिपका रोती रही.

शानू दी को अलग कमरे में बंद कर दिया गया. मैं अकेला सोया. मेरा बाप शानू दी के कमरे की कुण्डी सोने जाने से पहले लगा देता. एक हफ्ते में शानू गोरी से काली पड़ गयी थी. अब वो मुझे टीवी के विज्ञापन की लड़की के जैसे नहीं लगती थी. उसके आँखों के गड्ढे काले पड़ गए थे. घर में अब भी तरह तरह के लोग आते. तरह तरह की बातें करते, जो मुझे समझ नहीं आती.

एक दिन शानू ने मुझे सौ रूपये दिए, परचा लिख कुछ लाने को कहा. मैं चुपचाप गया और उसने जो कहा था ले आया. उसने मुझे पुचकारा. कहा 'अच्छे से पढ़ना, माँ का ख्याल रखना.' मैंने हाँ में बस जवाब दिया.

ठीक दो दिन बाद  मैं सो कर उठा. बाहर बहुत शोर था. शानू माँ की गोद में पड़ी थी. उसके मुंह से ढेर सारा खून निकल रहा था. मैं उसे दी, शानू दी कह जगाने लगा लेकिन वो न उठने वाली थी न उठी. उसके कमरे में बाद में एक कागज़ मिला. उसे मैंने ढूंढा था. अपने बाप को देने से पहले मैंने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था-

' माँ
मैं तुम्हारी तरह नहीं जीना चाहती. घुटके, पिट-पिट के. बचपन से तुम्हें पिटते देखा है. पापा मेरी शादी भी वैसे ही कहीं करा देंगे. मैं भी पिटूँगी, घुटूंगी. मुझे ऐसे नहीं जीना. शाहिद बहुत अच्छा लड़का था माँ. बहुत अच्छा फुटबॉल खेलता था एक दिन ज़रूर नेशनल टीम में होता. वो मुझे भगा के नहीं ले गया था. मैंने उससे कहा था, मेरा दम घुटता था इस घर में.

माँ, ये कोई लव जिहाद नहीं था. इसका तो न मुझे मतलब पता था न उसे. उसका तो बाप भी नहीं है. एक बूढी माँ है. उस औरत ने 3  दिन मेरा बड़ा ख़याल रखा. वो बहुत अच्छी है. पता नहीं उसका क्या हाल होगा अभी.
मैं अठारह की हूँ, वालिग हूँ. लेकिन मेरे कोई अधिकार नहीं हैं. मुझे जानना भी नहीं हैं कि क्यों नहीं हैं. मेरे सामने इन लोगों ने शाहिद को मार डाला. अब मैं भी मरना चाहती हूँ. बचपन में तुम कहती थी कि तुम मुझे ठन्डे पानी से नहलाती थी जिससे मैं मर जाऊं. क्यूंकि लड़कियों के साथ ऐसे ही किया जाता है. मैं बच गयी वो मेरी बदकिस्मती थी. अब मैं तुम्हारे जैसा नहीं बनना चाहती. मुझे नहीं करनी शादी कहीं, न लड़कियां जननी हैं न उन्हें ठन्डे पानी से नहलाना है न तुम्हारे जैसे मार खा खा पीठ नीली करनी है.
मुन्ने से कहना खूब पढ़े और फुटबॉलर बने. शाहिद सा अच्छा बने.

किसी की,
शोना'

मैंने वो कागज़ अपने बाप को दिया. उसने मुझे वहां से जाने को कहा. मैं दरवाजे पे आ गया. बाहर दीवारों कागज़ चिपके हुए. उन पीले कागज़ों पे लाल रंग से लिखा था- 'अपनी बेटियों को लव जिहाद से बचाएं.'
ऐसे ही लाल रंग के धब्बे तो उस कागज़ पे भी थे जो मैंने अभी अभी बाप को दिया था. मैंने देखा मेरी छाती पे जहाँ दिल होता है, कुछ गहरे लाल-लाल, नीले- काले धब्बे उभर आये हैं.

मैंने देखा एक बुढ़िया 'शाहिद, शाहिद' चिल्लाती पीले पन्ने फाड़ रही है. लोग उसे पागल कह दूर भगा रहे हैं.

[ चित्र इंडियन एक्सप्रेस से. चित्र क्या है? बस वास्ता रखता है कहानी से. ]

Monday, January 6, 2014

शमलीपुर का इशक़





[ इस कहानी का मुज़फ्फरनगर/शामली या किसी अन्य घटना से कोई भी समानता नहीं है. यदि आप इसे किसी घटना से जोड़तें हैं या संयोग पाते हैं तो तो ये आपकी योग्यता है. इसके जिम्मेवार आप और सिर्फ आप हैं, लेखक नहीं.]


बात कुछ ज्यादा नहीं थी. बात कविता की थी और बात शहजाद की थी. कविता को शहजाद पसंद था और शहजाद को कविता. लेकिन बात गौरव की भी थी, बात आस्मा की भी थी.  गौरव  कविता का भाई तो आस्मा शहजाद की बहिन.गौरव की नज़र में कविता का प्यार 'लव जिहाद' था और आस्मा की नज़र में शहजाद का प्यार भी 'लव जिहाद' जैसा ही कुछ था. देखो, गौरव और आस्मा के ख्याल कितने मिलते थे, लेकिन एक फर्क था दोनों में, गौरव हिन्दू था, आस्मा मुस्लिम.

तो कहानी ये थी कि गौरव ने अपनी बहिन को रोका, दो थप्पड़ जमाये और जान से मारने की धमकी दी. उधर आस्मा ने अपने भाई को समझाया,  मज़हब का वास्ता दिया, मौलवी साहब से शिकायत करने की बात की तो शहजाद का अंदर का मर्द जाग गया और उसने आस्मा को दो थप्पड़ जमाये और अगर मौलवी से कहा तो जान से मारने की धमकी दी. आखिर दोनों जगह मजहब को दरकिनार कर मर्द जीत गया, औरत ने थप्पड़ खाये.

गौरव का दोस्त समर था, अब समर नाम हिंदुओं का भी होता है, मुसलमानों का भी. तो आप कंफ्यूज न हो जाये इसलिए बता देता हूँ की ये समर एक मुस्लमान था जिसे आस्मा पसंद थी. तो गौरव ने समर की मदद ली. समर का स्वार्थ था वो तुरंत तैयार हो गया. प्लान ये था कि जब तक शहजाद गौरव की बहिन को नहीं छोड़ देता तब तक समर गौरव की मदद से आस्मा मतलब शहजाद की बहिन को छेड़ेगा. गौरव का आस्मा को छेड़ने का कुछ इरादा नहीं था,  न उसको परेशां करने का. उसकी जंग तो बस शहजाद के 'लव जिहाद' के खिलाफ थी, लेकिन समर को आस्मा पसंद थी और इस दसवीं में 3 बार फेल हुए आशिक़ ने आस्मा से प्यार का इज़हार कर चार थप्पड़ और दो अलग अलग कंपनी के सैंडिल भी खाये थे. अब वो आस्मा से बदला लेना चाहता था, तो उसने गौरव की मदद करने में हाँ कर दी. देखो, यहाँ मज़हब नहीं आया था, यहाँ समर का स्वार्थ आया था. उसे न तो शहजाद से मतलब था, न मौलवी की इश्क़ न करने की कहीं बातों से न ही कविता से.

शहजाद और कविता का इश्क़ परवान पे था, शहजाद क़स्बे का पढ़ने में सबसे तेज़ लड़का था और कविता ने तो दसवीं में जिला टॉप किया था, जबकि उसका बड़ा भाई गौरव दसवीं में दो बार फ़ैल होने के बाद तीसरी बार मुश्किल से पास हुआ था.  तो कविता और शहजाद ने दुनिया से दूर जाकर घर बसाने की सोची. प्लान खतरनाक था, भागने का था और दोनों की नज़र में ही बेवकूफी थी. लेकिन समाज ने बंधन बनाये थे, और बंधनों में दोनों घुट रहे थे. समाज की गलती को खुद की गलती- भागकर सही करने की ठानी. शहजाद ने अपने दोस्त समर कि मदद लेने की ठानी, लेकिन ये ऊपर वाला समर नहीं था, ये हिन्दू समर था. इसका बाप एक असफल नेता था जिसका थोडा बहुत दखल एक हिंदूवादी पार्टी में था. शहजाद और 'हिन्दू' समर एक ही स्कूल में पढ़े थे. 'हिन्दू' समर शहजाद की मदद दोस्ती की दो कसमें देने पे तैयार हो गया. समर स्कूल से ही होशियार नेता टाइप था, और उसे ये अपनी होशियारी पढ़े-लिखे शहजाद को दिखाने का अच्छा मौका था.

तो हुआ ये कि 'मुस्लिम' समर ने गौरव के साथ आस्मा को लगातार पांच-छ: दिन छेड़ा. आस्मा ने बात अपने बाप को बताई और बाप ने समाज में रसूख रखने वाले क़दीर मिआं को. अगले दिन गौरव और समर ने आस्मा को छेड़ा, पीछे से चार-पांच आदमियों ने उन्हें धर लिया. क़दीर मियाँ समझदार इंसान थे, पहले दोनों में चार-चार थप्पड़ जमाये और पेट में 2-2 डंडे घुसेड़े, फिर दोनों के नाम पूछे. मुस्लिम समर को पता था कि समर मुस्लिम और हिन्दू दोनों का नाम होता है, तो उसने अपना पूरा नाम, अपने नाजायज़ बाप के नाम के साथ बताया- समर अकबर खान. गौरव ने भी अपना नाम बताया- गौरव कुमार सिंह.

क़दीर मियाँ समझदार थे, पहले उन्होंने दोनों के पतलून उतरवाई और जब उन्हें यकीन हो गया तो 'मुस्लिम' समर को जाने दिया. तो मुख्य गुनहगार अपने मजहब के कारण जाने  दिया गया. क़दीर मियाँ ने और ज्यादा समझदारी दिखाई और बाकि लोगों के सामने एक जोरदार मजहबी भाषण दिया, और गौरव को जान जाने तक पीटने का हुक्म. क़दीर मियाँ को अपना चमकता भविष्य दिख रहा था.

लगभग उसी वक़्त की बात थी, शाम के लगभग चार-पांच बजे थे, घर में गौरव था नहीं, माँ सो रही थी तो कविता ने शहजाद के साथ भागने का फैसला लिया. 'हिन्दू' समर कविता और शहजाद को भगा रहा था, लेकिन बस स्टैंड पे आके सब पकडे गये. हुआ ये कि रास्ते में कविता के बाप की दुकान थी, और उन्होंने कहीं से मुंह पे कपडा बांधे कविता को पहचान लिया था. लोग कितना भी ढांपे, माँ-बाप बच्चों को पहचान ही जाते हैं. बस स्टैंड हनुमान मंदिर के पास था तो वहाँ अधिकतर हिंदुओं की दुकानें थी. कविता के बाप ने कविता को चार-छह: थप्पड़ मारे, 'हिन्दू' समर के बाप को बुलावा भेजा गया और शहजाद को पकड़ लिया गया. 'हिन्दू' समर का बाप नेता था. वो अपनी इज्जत समर के हाथों गंवाना नहीं चाहता था. उसने पहले तो समर को दो-चार थप्पड़ मारे फिर उसकी 'बचकानी' हरकत के लिए उसकी माँ को जिम्मेदार ठहराया. फिर बच्चा है इसलिए बख्स रहा हूँ कह के उसे वहाँ से भगा दिया. शहजाद से नाम पूछा गया, फिर 'हिन्दू' समर के ही उम्र के शहजाद की ये 'बचकानी' हरकत उन्हें बचकानी न लगी. उन्हें ये 'लव जिहाद' लगा. 'लव जिहाद' मार्किट में आया नया शब्द था, जिसे मीडिया ने हर दूसरे दिन अख़बारों में खबर दे के हवा दी थी. लोग कहते हैं ऐसा एक दाढ़ी वाले हिंदुत्ववादी नेता के कहने पे हो रहा था, लेकिन पक्का सबूत किसी के पास न था. समर के मोटे बाप महेश राना ने इस बड़ी हरकत के लिए शहजाद को पीटना शुरू किया, और ये तब तक चलता रहा जब तक की शहजाद मर न गया.

दो घंटे में शहजाद का मरना आग की तरह फ़ैल गया. क़दीर मियाँ ने अकेले में 'मुस्लिम' समर को बुलाया, और फिर सारी जमात को...और वहाँ कहानी ये निकली की गौरव आस्मा को छेड़ता था, 'मुस्लिम' समर ने अपने मजहब की लड़की को बचाया तो गौरव पीटने लगा. इतने में क़दीर मियाँ आ गये और गौरव को उसके किये का सबक सिखाया.... और उसके बदले में शहजाद को मार दिया गया. हाँ, जैसा की अक्सर होता है, मर्द को औरत का सामाजिक मामलों में दखल देना बिलकुल पसंद नहीं होता, तो यहाँ आस्मा का कथन लेना किसी ने भी ज़रूरी नहीं समझा.

'हिन्दू' समर के बाप महेश राना ने किसी नेता को फ़ोन किया और ठीक ढाई घंटे बाद ये कहानी आई- शहजाद 'लव जिहादी' था ये सब मौलवी साहब करवा रहे हैं और इसे रोकना बहुत ज़रूरी है. आज ये कविता के साथ हुआ है कल आपकी बहू -बेटियों के साथ भी हो सकता है. 'हिन्दू' समर ने अपने बाप चार थप्पड़ों को याद रखते हुए 'हाँ' में सर हिलाया. फिर जो हुआ खुद एक कहानी है.

चार दिनों तक शमलीपुर जलता रहा. अख़बारों में दो महीने यही मुद्दा छाया रहा. कई नेता भाषण देते रहे. 'माइनॉरिटी' हितेषी प्रदेश सरकार ने दो भाषण दिए और दंगा पीड़ितों के लिए दो महीने तक सात तम्बू लगाये, और तीसरे महीने बुलडोजर से उखाड़ फेंके. फिर क़दीर मियाँ का सम्मान किया गया. क़दीर मियाँ ख़ुशी से और मोटे हो गये. महेश राना अगले चुनाव में विधायकी के पक्के उम्मीदवार हैं और दाढ़ी वाले नेता के बगल में कुर्सी पे बैठ लेने से फूले नहीं समा रहे हैं.

'हिन्दू' समर और 'मुस्लिम' समर का कहानी में अब कोई मतलब नहीं है. हाँ, उन्होंने दंगा पीड़ितों को अस्पतालों फल बाँटते हुए बहुत फ़ोटो खिचवाई और अख़बारों में इतना आये जितना न तो जिला टॉप करने वाली कविता आई थी और न ही कॉलेज टॉप करने वाला शहनाज़ कभी आया था. दोनों ही नेता के रूप में अपना उभरता कैरियर देख रहे हैं.

सुना है, कविता और आस्मा साथ मिलकर शहजाद और गौरव की लाशें ढूंढते हैं और कभी-कभी एक दूसरे से पूछते हैं कि-'गलती किसी थी'.

आप तो इस संभ्रांत समाज के पढ़े लिखे लोग हैं, आपने तो पढ़ ली कहानी. आप बताइये न-'गलती किसकी थी?'
[ चित्र मुज़फ्फरनगर रिलीफ कैंप में मरते नवजातों का है. हाँ, मज़हब मत पूछिए, शिशुओं को अपना मज़हब पता नहीं होता. ]

Monday, September 23, 2013

शक



अक्सर कहानियाँ वहां से शुरू नहीं होती जहाँ से हम सोचते हैं, हर कहानी का एक 'कल' होता है, एक आम इन्सान की तरह. इस कहानी का भी था. फ़िलहाल, ये कल के ही अख़बार में छपी घटना थी और इस कहानी में बताये गये सारे पात्र और घटनाएँ सच हैं, और सत्य से किसी भी असमानता के लिए लेखक की कमजोरी माना जाये! हाँ, किरदारों के नाम और स्थान बदल दिए गये हैं और एक पात्र के शरीर में मैं घुस गया हूँ, क्यूंकि अपने मुंह से कहानी कहना मुझे ज्यादा प्रिय है.

मैं पढ़ रहा था, कहानी नहीं, किसी का मेल था. इक लड़की का. उसके अनुसार वो मेरी बहुत बड़ी फैन थी और उसने मेरी लिखी सारी कवितायेँ पढ़ी थी! मुझे ये पढना नया नहीं था और ऐसे मेल मुझे अक्सर आते थे, लेकिन नया ये था कि वो लड़की लगभग मेरी हमउम्र थी और अंत में उसने मुझे 'आय लव यू' लिखा था. मैं उसी लड़की ख्यालों में खोया था कि फ़ोन की घंटी बजी. 
'हेलो, पहचाना?'
'नहीं, मैंने नहीं पहचाना.' मैंने सपाट सा उत्तर दिया. फ़ोन पे किसी के शक्ल तो दिखाई नहीं देती की मैं किसी अजनबी को पहचान पाता.
'मैं बोल रहा हूँ विशाल.'
'कौन विशाल?'
'दिव्या का फियोंसे (मंगेतर)'
'हाँ कहिये.' मैंने अपनी साँस रोककर कहा. दिव्या मेरी 'एक्स' थी शायद मैं उससे अब भी प्यार करता था और शायद वो भी करती थी.(या शायद ये बस मेरा भ्रम था.)
'तुम अब भी उसे फ़ोन करते हो. फिर कभी मत करना! समझे' गुस्से में मुझसे कहकर फ़ोन काट दिया गया.

मैं कुछ देर फ़ोन हाथ में लिए ही खड़ा रहा. यकीनन मुझे ये चौंकाने वाली बात थी, क्यूंकि मुझे जहाँ तक याद था, लड़कियां शादी के पहले अपना अतीत नहीं बताती और शायद दिव्या जब तक मेरे साथ रही कभी भी इतनी ईमानदार नहीं रही. उसने न तो मुझे अपना पहला प्यार बताया था न पहला चुम्बन! फ़िलहाल मैंने इस बात को रफा-दफा मान लिया और अपने को अपनी कविताओं की कसम दे दी कि कभी दिव्या को फ़ोन नहीं करूँगा.

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे, मैं अपनी उसी प्रशंसक का मेल पढ़ रहा था. यकीनन मैं उसकी तरफ झुकाव महसूस कर रहा था और ये गलत भी नहीं था. मैं उसके मेल का जवाब देने ही वाला था कि मेरा फ़ोन बजा.
'मैं विशाल बोल रहा हूँ.' वहां से आवाज़ आई. ये जानी-पहचानी आवाज़ थी. मैं चौंक गया, इसलिए नहीं कि ये दिव्या के फियोंसे का फ़ोन था, इसलिए कि मैं उस घटना को एक महीना बीत गया था और मैं उसे लगभग भूल गया था. उसके पिछले फ़ोन के बाद से मैंने दिव्या को भी फ़ोन नहीं किया था.
'तूने साल्ले किया क्या है? तू अब भी उसके अन्दर है.' उसने लडखडाती आवाज़ में कहा. शायद वो शराब पिए था, नहीं शायद शराब उसे पीये थी!
मैंने उसे समझाने की कोशिश की. 'किसी इन्सान का पहला प्यार बनना कोई बड़ी बात नहीं, बनना है तो आखिरी प्यार बनो. ये मत सोचो कि तुमसे पहले उसे किसी से प्यार था या नहीं, कोशिश करो कि तुम्हारे बाद किसी और के प्यार की आवश्यकता ही न पड़े.' और 'इक रेखा को छोटा करने के लिए उससे बड़ी रेखा खींचनी चाहिए' जैसे पढ़े-पढाये डायलॉग भी मारे. लेकिन शायद वह सुनने वाला नहीं था.
'मैं उसे भी देख लूँगा और तुम्हें भी. पुणे मैं हत्या करवाने के सिर्फ अस्सी हज़ार लगते हैं.' कह के उसने फ़ोन काट दिया.

उसके फ़ोन काटते ही मैं परेशान हो गया. उसकी 'अस्सी हज़ार' वाली बात के लिए नहीं, दिव्या के लिए. मैं उसे बताना चाहता था, चीख चीख के कहना चाहता था कि ये अच्छा लड़का नहीं है, शायद वो तुम्हें मार भी डाले. लेकिन मैंने फ़ोन नहीं किया, उसके पीछे दो कारण थे, पहला, कि मैंने अपने को अपनी कविताओं की कसम दिलाई थी कि मैं कभी दिव्या को फ़ोन नहीं करूँगा....और दिव्या के जाने के बाद अब मेरे पास सिर्फ मेरी कवितायेँ ही बची थी जिन्हें मैं खोना नहीं चाहता था और दूसरा ये कि ये शादी दिव्या के बाप द्वारा तय की गयी थी. क्यूंकि मैं विजातीय था और विजातीय लड़के अच्छे नहीं होते! वैसे भी इश्क तो पाप है. हाँ कृष्णा ज़रूर पूज्य हैं और कृष्णा के साथ रुक्मणी नहीं राधा को पूजते हैं. फिर भी इश्क गुनाह है!! फ़िलहाल मैंने फ़ोन न करने का निश्चय किया, लेकिन परेशान था तो अपने सबसे अच्छे दोस्त को फ़ोन किया.

'अबे इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है. वो तुझे मारे उससे पहले तू उसे मार दे. नागपुर में अपने सईद भाई आम आदमी का क़त्ल करने के बस सत्तर हज़ार लेते हैं. हाँ, कोई बड़ा आदमी है तो सत्तर लाख भी हो सकता है.' उसने सबकुछ सुनने के बाद कहा. मैंने उसकी बात को नकार दिया क्यूंकि मैं अपने लिए नहीं दिव्या के लिए परेशान था और फिर कवियों के पास सत्तर हज़ार रूपये भी तो नहीं होते! 

फ़िलहाल न तो मेरा क़त्ल हुआ और न ही मैंने सईद भाई को याद किया, और ऐसे ही छ: साल बीत गये. हाँ, ये ज़रूर हुआ कि मुझे अपनी मेल वाली प्रशंसक से इश्क ज़रूर हो गया और मेरी पहली किताब के बेस्ट सेलर होते ही हमने शादी कर ली. हाँ, इक-दूसरे का अतीत जाने बिना.

अब मैं सम्मानित लेखक था और मेरे पास पैसा था, जिससे मैंने इक गाड़ी, घर और घर में बड़ी सी एल. इ. डी. टीवी खरीदी थी जिसपे मैं न्यूज़ देख रहा था, कि इक खबर ने मेरा सिर घुमा दिया.
'नागपुर के फलाना इलाके में रहने वाली दिव्या अग्निहोत्री की लाश मिली. उसके परिवार वाले इसे आत्महत्या कह रहे हैं लेकिन पुलिस को उसके पति विशाल अग्निहोत्री पे शक.' 

यक़ीनन ये चौंकाने वाली खबर थी, क्यूंकि छ: साल बाद भी मैं दिव्या के मासूम चेहरे को पहचान सकता था. मेरा पहला प्यार और दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की! जिसको कभी डांटते-डांटते भी मैं रो दिया करता था वो अब इस दुनिया मैं नहीं थी.... जिसको कभी मैंने गुस्से से देखा तक नहीं था उसकी हत्या हुई थी....और हत्या करने वाला उसकी अपनी जाति का था, मैं विजातिया नहीं!

इक हफ्ते बाद मैं और मेरी पत्नी टीवी देख रहे थे कि फिर से इक खबर आई. 'नागपुर के फलाना जगह रहने वाले विजय अग्निहोत्री की हत्या. गौरतलब है कि इक हफ्ते पहले उनकी पत्नी की भी मौत हुई थी.' 

शायद मेरे द्वारा ट्रान्सफर किये इक लाख रूपये सईद भाई के पास सही वक़्त पे पहुँच गये थे. मैंने पत्नी के सामने थोडा सा शौक व्यक्त किया, जैसा कि हर बार ऐसी खबर सुनने के बाद करता था. किसी को शक भी नहीं हुआ कि मैंने दिव्या की हत्या का बदला लिया है!

इस कहानी का अंत यही था और ये कल के 'द हिन्दू' की खबर थी. हाँ, मैं जिसका किरदार निभा रहा हूँ वो इक मैनेजमेंट गुरु है और उसके अनुसार इस कहानी के दो निष्कर्ष निकल सकते थे-
पहला, इतने ईमानदार भी न बनो की ईमानदारी आपकी जान ले ले.
दूसरा, शक मत करो, शक कि दवा नहीं होती. आज में जियो ज़िन्दगी खुशहाल बनेगी.

लेकिन मैं लेखक हूँ तो उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब पति का अतीत जान शक में कोई औरत किसी आदमी की हत्या करेगी. यकीनन ऐसा देखने मुझे शायद वर्षों इंतज़ार करना पड़े क्यूंकि औरतें पतियों के हज़ार अतीत सह सकती हैं और हजारों गलतियां माफ़ कर सकती हैं लेकिन आदमी कभी औरत का इक अतीत भी बर्दाश्त नहीं कर सकता! यकीनन मुझे समाज बदलने तक इंतज़ार करना पड़ेगा!

[ चित्र 1974  में प्रदर्शित 'आप की कसम' फिल्म का जिसका 'जय-जय शिवशंकर' गाना आपकी जुबान पे भी चढ़ा होगा. फिल्म ज़रूर देखिये और कुछ शिक्षा लीजिये!]

Saturday, September 14, 2013

ख़त



मैं पलंग पे लेटा हुआ था. वो आये 'कैसे हो मियां?' औपचारिक मुस्कुराये. मैंने अपना पांव हाथों से उठा के बैठने की कोशिश की. 'नहीं, नहीं लेटे रहो, और ये पकड़ो.' उन्होंने एक लिफाफा मेरी और बढ़ा दिया. 'गवर्मेंट ने सेवन लाख की जो घोषणा की थी, उसकी डिटेल्स है. कुछ दिन में पैसे तुम्हारे अकाउंट में पहुँच जायेंगे.' मैंने लिफाफा सायमा को थमा दिया. '...और हाँ, टीवी पर 'फारेस्ट गम्प' और 'शाव्शंक रिडेम्पशन' किस्म की फिल्म देखते रहना अच्छा लगेगा. उन्होंने जाते-जाते कहा. 'शुक्रिया...' मैंने धीरे से कहा और अपना घुटनों तक कटा पांव सरकाने की कोशिश की.

सायमा ने दरवाजा बंद किया. वो मेरे पास आई, मैंने उसे लिफाफा थमा दिया. 'इसका अब क्या करेगें?' उसने धीरे से कहा फिर मेरे से लिपट गई. 'सब ठीक हो जाएगा सायमा, बस एक पैर ही तो कटा है, जिंदा तो हूँ न.' मैंने उसे पांचवें दिन और पचासवीं बार एक ही वाक्य दुहराते हुए दिलासा दी. वो मेरे से चिपकी रही. मैंने उसके बालों को सहलाया. 'मुझे तुमसे कुछ कहना है सायमा.' 'हाँ कहो,' उसने सर उठाते हुए कहा. मैंने तकिये के नीचे से निकालकर उसके हाथ में एक लिफाफा थमा दिया.
'पढो.'
'उर्दू में है ये, किसने भेजा? अच्छा पढ़ के सुनाती हूँ.'

'अब्बू, यहाँ सब खैरियत से है. मैं अच्छे से पढ़ रही हूँ, हर रोज़ स्कूल भी जाती हूँ. इस बार रोज़े नहीं रखे थे, अम्मी ने कहा है और बड़ी हो जाओ तो रखना. नये कपडे लेने थे लेकिन अम्मी कहती है आपके भेजे पैसे ज्यादा दिन नहीं चलते और दादी का इलाज़ भी कराना पडता है. इस बार ज्यादा पैसे भेजना. मैंने कहा था न इस बार अच्छे से लिखना सीख जाउंगी, देखो सीख गई. अब सदीक़ स्कूल में एडमिशन दिला दो तो और अच्छे से पढूंगी. अम्मी कहती उसके पास साल भर की फीस भरने पांच हज़ार रूपये नहीं है. -आपकी नाजिया'

'रंजीत, किसने लिखा ये? तुम्हारे पास कैसे आया?' '
मुझे नहीं अनवर अली के लिए आया था'
'कौन अनवर अली?'
'पाकिस्तानी जिसे मैंने मारा था. उसकी जेब में था ये. मैं चेक कर रहा था तब मुझे मिला.'
'तो....?'
'मैं नाजिया के बाप का कातिल हूँ.'
'तुमने जानबूझ के तो नहीं किया न रंजीत, अगर तुम नहीं मारते तो वो तुम्हें मार देता. देखो पांव तो काटना ही पड़ा न.'
'लेकिन....'
 'लेकिन क्या? तुम्हारी गलती नहीं है, अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और रिद्मा कैसे रहते? रिद्मा तो तीन साल की उम्र में ही अनाथ हो जाती न. पता नहीं तुम क्या सोच रहे हो.' सायमा थोडा गुस्से में बोली.
'अगर हम इन सात लाख में से पांच हज़ार अनवर के घर भेज दे तो? हमारी रिद्मा के जैसे उसकी नाजिया भी पढ़ लेगी.' मैंने धीरे से कहा.

सायमा ने थोड़ी देर ख़ामोशी से एक टक मेरी तरफ देखा. फिर 'मेजर रंजीत तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है.' कह के  मेरे से  चिपक गई. 'मेरी और अनवर की कोई दुश्मनी नहीं थी....सियासत की थी. सैनिक हाथों में हथियार नहीं लेना चाहते सायमा, सियासतें उन्हें मजबूर करती हैं.' मैंने उसे चूमते हुए कहा.

अगले पंद्रह साल तक नाजिया को पैसे मिलते रहे और एक ख़त भी, जिसपे सिर्फ 'सॉरी बेटा' लिखा होता था.


[चित्र 2002 में प्रदर्शित 'वी वर सोल्जर' के अंतिम दृश्यों में से एक दृश्य का है. चित्र के साथ 'सब टाइटल्स' पे ज़रूर ध्यान दें.]

Saturday, September 7, 2013

क़त्ल

यकीन मानिये, ये कहानी नहीं थी. ये आत्महत्या के वक़्त लिखा गया नोट था. लेकिन पुलिस को ये कहानी जैसा लगा था और इसलिए इसे सुसाइड नोट नहीं माना था और फाड़ के फेंक दिया था! पढ़िए और बताइए आपको क्या लगता है :--




मैं लिखता था, लेकिन चूँकि देश के हर लिखने वाले की नियति यह होती है कि वो सिर्फ लिखकर के पेट नहीं भर सकता तो मैं काम भी करता था. आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं, कि मैं काम करता था लेकिन लिखता भी था. वो इसलिए क्यूंकि अब मैं काम हर दिन करता था और लिखता कभी-कभार था. फ़िलहाल मुद्दा ये नहीं है कि मैं लिखता था तो अब सिर्फ कहने को यही बचता है कि मैं काम करता था.

मैं जहां काम करता था वहां एक से लोग थे, एक से कपडे पहिन के हर दिन लगभग एक सा काम करते थे.  ये मुझे बंधुआ मजदूरी का नया सुधरा रूप लगता था. मेरी कंपनी बड़ी थी, जिसके सारे ग्राहक विदेशी थे. 'ग्राहक' सुनकर आप अपना खाली दिमाग नहीं चलाईएगा क्यूंकि मैं किसी लाल-बत्ती-क्षेत्र (आप अपनी भाषा में रेड लाइट एरिया भी बोल सकते हैं.)  में काम नहीं करता था. हाँ 'विदेशी' सुनकर ज़रूर आप कुछ कह सकते हैं. चलिए आप नहीं कहते तो मैं ही कहे देता हूँ, आपको इस तरह का काम नये तरीके कि गुलामी लग सकता है और दफ्तर किसी विदेशी हुकूमत की जेल.

मेरे आस पास जितने भी काम करते थे उन्हें सिर्फ काम से मतलब था, उन्हें बाहर की दुनिया नहीं पता थी. मैंने अपनी 'लीड' (जिसे फिर से आप अपनी भाषा इस्तेमाल करके 'बॉस' कह सकते हैं.) से कहा कि 'सचिन ने खेलना छोड़ दिया है.' उसने मुझे देखा, इस तरह से देखा जैसे मैंने किसी दूसरी दुनिया की कोई बात की हो. फिर कड़क के दक्षिण भारतीय हिंदी में पूछा कि ' एम् आर डी की सोर्स फाइल्स कॉपी हुआ की नहीं?' (एम् आर डी वाली बात में आपको आपकी भाषा में नहीं समझा सकता क्यूंकि समझाते-समझाते ही ये कहानी ख़त्म हो जाएगी फिर भी आप पूछेंगे कि ये एम् आर डी  होता क्या है. फ़िलहाल इतना समझ लीजये कि कोई पकाऊ सा काम है, जिसे करना ज़हर पीने के बाद मरने का इंतज़ार करने जैसा है.) फ़िलहाल मुझे हंसी आ गयी. इसलिए नहीं कि उसे कुछ नहीं पता था, इसलिए की आप ये समझते हैं कि क्रिकेट देश का सबसे पसंद किया जाने वाला खेल है और सचिन भगवान् की तरह है. गनीमत ये थी कि मैंने काम कल ही देर रात दस बजे तक दफ्तर में बैठ के ख़त्म किया था तो 'लीड' को अपने प्रश्न का उत्तर सकारात्मक मिला और मैं और भी कुछ सुनने से बच गया. फिर मैंने अपने पास बैठे दिनेश से पूछा, उसने भी मुझे अजीब तरीके से देखा जैसे मैंने उसकी बहिन की ख़ूबसूरती की चर्चा कर दी हो. हाँ, मैं ये सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, कि आपको ये न लगे कि मेरी 'लीड' औरत थी तो शायद उसे क्रिकेट के बारे में पता नहीं होगा.

'लीड' बनना कोई छोटी बात नहीं होती, क्यूंकि उसके लिए आपको सुबह आठ से शाम, माफ़ कीजिये रात दस बजे तक छ:- सात साल तक काम करना पड़ता है. हाँ लेकिन उसके बाद आपको ज्यादा काम करने की ज़रूरत नहीं होती, क्यूंकि आप आराम से अपना काम दूसरों पे थोप सकते हो. आप आराम से दूसरों पे हुक्म चला सकते हो या दूसरों के काम के बीच अपनी भद्दी सी फटी बिवाई वाली टांग अड़ाकर उसे परेशान कर सकते हो. कभी-कभी तो किसी के द्वारा किये काम का श्रेय भी ले सकते हो. हाँ आपने पिछले छ:- सात साल सिर्फ काम करते गुज़ारे हैं तो अब आप उसका गुस्सा भी लोगों पे निकाल सकते हो. ऐसे ही एक बार मैंने अपने पुराने 'लीड' से पूछा था, कि वो मुझे कुछ चीज़ समझाएगा क्या? लेकिन उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ खा जाने वाली नज़रों से देखा और कहा कि मैं खुद सीख लूँ, क्यूंकि उसने भी भी खुद ही सीखा था, और मेरा बाप उसे सिखाने नहीं आया था. मैंने उसकी बात को अपने सर मैं बैठा लिया और खुद ही सीखा. लेकिन सीखने के बाद में बहुत हंसा, क्यूंकि मुझे पता चल गया था कि जो मेरे लीड को आता है वो अधूरा ज्ञान है. लेकिन मैंने उसकी गलतियां उसे नहीं बताईं क्यूंकि मैं शायद उसके अहं में छेद कर बात आगे नहीं बढाना चाहता था.

मेरे पुराने और नये लीड के बीच सम्बन्ध थे, ये बाद मुझे बाद में पता चली. इस बार आप सही हैं, उन दोनों के बीच अनैतिक सम्बन्ध ही थे. दोनों ही भद्दे लगते थे, लेकिन उनके बीच सम्बन्ध थे. अक्सर हम मान लेते हैं कि एक खूबसूरत लड़का और एक खूबसूरत लड़की ही प्यार कर सकते हैं. हमारी फिल्मों में भी यही दिखाया जाता है. लेकिन आदतन प्यार अंधा होता है तो एक भद्दी औरत के एक भद्दे आदमी से सम्बन्ध थे. खैर, मुझे उनके अनैतिक संबंधों से कुछ लेना-देना नहीं था. बात ये थी कि वो ऑफिस के वक़्त बाहर घूमने जाते थे और अपनी लीड का काम हमें करना पड़ता था. जो बंटकर मेरे हिस्से में पच्चीस प्रतिशत आता था. पच्चीस प्रतिशत मतलब दो घंटे ज्यादा, दो घंटे ज्यादा मतलब दस बजे तक काम करना. इतना काम करना मुझे कतई पसंद नहीं था और मेरी हिम्मत जवाब दे देती थी. मैं बेहताशा थक जाता था.

मैं परेशान था. काम के बोझ तले दबा महसूस कर रहा था. एक दिन मैं बीमार पड़ गया. मैंने अपनी लीड को बताया. लेकिन आपको जैसे पता ही है जहां मैं काम करता था वहां सबको मशीन समझा जाता था और आपका बीमार होना किसी कंप्यूटर प्रोग्राम में वायरस आने जैसा था. शायद इसीलिए उसने मुझपे चिल्लाया कि 'मैं कैसे बीमार पड़ सकता हूँ?' उसकी इस हरकत पे मैं हंसना चाहता था क्यूंकि बीमार 'कैसे पड़ा' ये तो बीमार पड़ने वाले को भी नहीं पता होता! लेकिन शायद मैं बीमार था तो मैंने रो दिया. उसदिन मैं बरसों बाद रोया था. मुझे माँ की बहुत याद आ रही थी मैंने अपनी माँ को फ़ोन किया, लेकिन मैं माँ के सामने रोना नहीं चाहता था, क्यूंकि इससे माँ परेशान हो जाती. 'कैसे हो बेटा?' माँ ने पूछा. मैंने 'अच्छा हूँ' जवाब दिया फिर उगते सूरज, पूरे चाँद और तारों की बातें की. घर के क्यारी में खिले फूलों में बारे में पूछा और सावन की बारिश का हाल बताया. जब उसे यकीन हो गया कि मैं खुश हूँ तो मैंने फ़ोन रख दिया.

मैं 'शम्भू के रेस्तरां में खाना खाता था. वो अच्छा खाना खिलाता था. वो 35  रूपये में एक थाली खिलाता था. खाना अच्छा था क्यूंकि 35 रूपये में था. हाँ, उस अच्छे खाने की दाल पतली होती थी और सब्जी में एकाध बार कीड़े भी निकले थे. वो बारस सौ किलोमीटर से यहाँ रेस्तरां खोलने आया था और यहाँ की भाषा भी सीखी थी, इसलिए ज्यादा पैसे कमाना अपना हक समझता था. इसीलिए सब्जी में हमेशा सड़े टमाटर ही डालता था. मुझे पहले से ही शक था इसका खाना खा के मैं बीमार पडूंगा लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था. ऑफिस से आते-आते मुझे दस बज जाते थे और उसके बाद न तो खाना बनाने कि इच्छा होती थी न ही हिम्मत.

मैं चीज़ें भूलने लगा था. मुझे पहले लगा शायद ये मेरा भ्रम है लेकिन फिर गूगल पे ज्यादा तनाव से होने वाली इस बीमारी के बारे में पढ़ा तो मुझे इस भूलने की बीमारी के बारे में पता चला. एक दिन में ऑफिस के लिए निकला लेकिन भूलने के कारण में बाज़ार पहुँच गया. वहां मैंने कच्चे आलू खरीद कर खाए. यकीन मानिये मैंने कच्चे आलू ही खाए थे. हाँ कच्ची प्याज नहीं खाई थी. प्याज ने एक बार देश की सरकार गिराई थी शायद इसलिए मैं उससे डरता था. जब मुझे होश आया तो भागता ऑफिस पहुँचा, लेकिन देर से पहुंचा और फिर डांट खाई.

एक बार मैंने 'शम्भू के रेस्तरां' में खाना खाया. जैसा कि  आपको पता है, बिल 35 रूपये आया. कोई नेता ये कह सकता है कि मैंने तीन लोगों का खाना एक साथ खाया है. क्यूंकि देश में भरपेट खाना अब भी 12  रूपये में मिलता है. खैर, मैंने पैसे देने जेब में हाथ डाला लेकिन शायद मैं पर्स भूल गया था.(लड़कियों को आपत्ति हो तो वो पर्स को वॉलेट भी पढ़ सकती हैं.) मैंने दस मिनट में पैसे लेकर आने का वादा किया, लेकिन बदले में उसने मेरा मोबाइल गिरवी रख लिया. दस मिनट बाद में पैसे लेकर आया तो उसमें माँ के 16 मिस्ड कॉल थे. उन्होंने बार-बार फ़ोन किये शायद उन्हें कोई अनहोनी की आशंका हुई होगी. (बाद में मैं मुझे पता चला कि माँ को अपने बच्चों कि नियति पहले से पता होती है!) वो फ़ोन पे रो दी. मैंने झूठ बोल कि मैं बाथरूम था. वो चुप हो गई. मैं दस मिनट चुपचाप सड़क पे बैठा रहा.

मैं कभी-कभी नित्या को फ़ोन करना चाहता था. नित्या मेरा पुराना प्यार थी. हमने एक ही कॉलेज से पढाई की थी. साथ-साथ चार साल गुज़ारे थे. हम एक दुसरे के बहुत पास था. शायद इसलिए क्यूंकि हमने एक ही कॉलेज में नहीं एक ही रूम में भी पढ़ा था, और पढने के अलावा और भी कुछ किया था. हर बार उस 'कुछ' के बाद कपडे पहिनने से पहले हम एक ही ख्वाब देखा करते थे, जिसमें हमारे तीन-चार छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे. अब आप उत्सुकतावश उन बच्चों का जेंडर मत पूछियेगा, क्यूंकि हमने ख्वाबों में बच्चों की चड्डी उतार जेंडर नहीं देखे थे. पहले हम बहुत बातें किया करते थे, लेकिन फिर में व्यस्त हो गया और वो नाराज़ हो गई. इसे मैं उसकी गलती नहीं कह सकता, क्यूंकि मेरे पास ही वक़्त नहीं था. लेकिन ये मेरी भी गलती नहीं थी. किसी ने समझदार आदमी ने था कि लम्बी दूरी का प्यार (आपकी भाषा में लॉन्ग-डिस्टेंस-रिलेशनशिप)  नहीं चलता , ये उसी आदमी की समझदारी का परिणाम था. खैर, धीरे-धीरे नित्या में मेरा फ़ोन उठाना बंद कर दिया और मेरे प्यार का अंत हो गया, और हमारे बच्चे कभी ख्वाबों से बाहर ही नहीं निकले!

मैं निराश था और निराशावश मैंने लौट के घर जाने का सोचा. घर पे मैं फिर से लिखना शुरू कर सकता था. लेकिन फिर मैंने ये ख़याल त्याग दिया. हुआ ये था कि एक बार मैंने 'बाढ़-राहत-कोष' में पाँच हज़ार रूपये जमा किये थे. जब मैंने ये बात अपने बाप को बताई तो उन्होंने कहा कि 'बीस हज़ार कमाने वाले पांच हज़ार दान नहीं करते.' उसके बाद उन्होंने बहुत सी बातें की जो मुझे कुछ-कुछ गाली जैसी लगी थी और मैं उन्हें यहाँ दुहराना नहीं चाहता. मैं सिर्फ लिखने से बहुत सारे पैसे नहीं कमा सकता था और उनसे पैसे मांगने से डर रहा था.

आखिर मैंने आत्महत्या करने की सोची. हाँ, इस चकाचौंध भरी दुनिया से, जहाँ एकबार मैं खुद ही आना चाहता था, काम करना चाहता था, से आखिर निराश होकर मैंने आत्महत्या करने की सोची. आत्महत्या बड़ा अजीब ख़याल होता है. खुद को मारना बड़ा अजीब ख़याल होता है. यह आपको पापी बना देता है, कमजोर प्रदर्शित करता है. इसलिए मैंने आत्महत्या का ख़याल त्याग दिया. लेकिन इसे हादसे का रूप देने का सोचा. मैंने दौड़ते हुए, दौड़ती कार के सामने आने का सोचा, लेकिन इस तरीके से बेगुनाह कार वाले को जेल जाना पड़ सकता था. लेकिन फिर मुझे लगा हम सब अपनी ज़िन्दगी में दो-चार दिन जेल में बिताने लायक गुनाह तो करते ही हैं, तो एक रात मैं तेजी से दौड़ती कार के सामने तेजी से आ गया. मैं दो मीटर दूर उछला और मर गया. लोगों ने कार को घेर लिया. कार में से एक औरत निकली. वह औरत मेरी लीड थी. मैं मरते-मरते भी अपनी मौत और उसकी किस्मत पे मुस्कुरा दिया.

अगले दिन अखबार में खबर छपी, 'फलाना सूचना प्रोद्योगिकी कंपनी में काम करने वाला चौबीस वर्षीय 'ढिमका' सॉफ्टवेर इंजिनियर सड़क हादसे में मारा गया.....' पुलिस ने इसे हादसा कहा था. मैंने आत्महत्या का नाम दिया है. लेकिन पढने के बाद आप समझ सकते हैं कि ये एक क़त्ल था. अत्यधिक काम और तनाव द्वारा किया गया क़त्ल!

(देश में हर साल औसतन 9500 लोग अत्यधिक काम से तनाव में आ आत्महत्या करते हैं. लेकिन बस खनकते पैसे गिनने वाली सरकार बहादुर चुप है और हम-आप के पास तो ये सोचने का वक़्त ही नहीं है!)

[ चित्र 2011 में प्रदर्शित मेरी फेवरेट फिल्म 'शेम', अभिनेता 'माइकल फ़ासबेंडर' का है. अगर आप वालिग है तो ही इसे देखिये, क्यूंकि ये एक NC-17  सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्म है. ]

Tuesday, September 3, 2013

बाप की हत्या

'तुम मेरी सबसे प्यारी नज़्म हो.' कहानी की शुरुआत यहाँ से न हुई होती अगर मुझे उससे प्यार न हुआ होता. वो यानि दुनिया की सबसे ज्यादा भाव खाने वाली लड़की, वो यानि सबसे अच्छी हंसी हंसने वाली लड़की. वो यानि प्यार करने वाली लड़की. प्यार कई तरह के होते हैं, जैसे अच्छावाला प्यार, जिसमें लड़की-लड़की दोनों ही चादरों तले अच्छे प्यार का सुख भोगते हैं. खुश रहते हैं. लड़की वाला प्यार, जिसमें लड़की बस अपने आंसू बहाती है और लड़का सिर्फ अपनी जेबें टटोलता है. लड़के वाला प्यार, जिसमें दस दिन इश्क होता है और ग्यारहवें दिन किसी सस्ते होटल के सीलन भरे कमरे में लड़के के कपडे पहिनते ही प्यार का अंत होता है. लेकिन यकीनन ये प्यार सच्चा था, क्यूंकि इसमें न तो जिस्म था, न  भोग की लालसा. हाँ, हमने एक-दूसरे को चूमा ज़रूर था, लेकिन वो भी इतनी अधिक बार कि उँगलियों की पोरों इन्हें गिना नहीं जा सकता.

वो मतलब दुनिया की सबसे अजीब लेकिन उतनी ही सजीव लड़की. सजीव इसलिए कि उसे याद था की उसके चचेरे भाई ने कब उसे 'उस' तरह से छुआ था. उसे याद था कि कब उसने दरवाजे कि दरारों से अपने माँ बाप को बंद कमरे में  'कुछ' करते देखा था. सजीव इसलिए क्यूंकि उसके अन्दर ये यादें धुंए कि तरह बैठ गयी थी. कभी न उड़ने वाले धुंए की तरह, जो नसों में घुला होता है और बार-बार सपने में आ हमें डराता है.

मैं मतलब 'मैं' था. मेरे बाप को जग-सेवा का भूत सवार था. वो अपने कस्बे ही में डॉक्टर हो गये थे. लोग कहते थे उनके हाथ में जादू है. वो हाथ देखते दो गोलियां लिखते और लोग ठीक हो जाते थे. वो मुझसे बहुत प्यार करते थे. हाँ, वो चिल्ला-चिल्लाकर डांटते बहुत थे. मरीज़ डर जाते थे. मुझे लगता था कि मरीज़ बस उनके चिल्लाने बस से ठीक हो जाते हैं. ये दवाइयां तो बस भ्रम है. लेकिन ऐसा सिर्फ मुझे लगता था, किसी और को नहीं. हाँ, वो मेरे गालों को चूमते थे. उनके पास रहता तो मैं बड़ा खुश रहता था, लेकिन थोडा डरता भी था. बाप कितना भी प्यार करे, बच्चे उससे डरते ही हैं. ये देश की परम्परा है, मेरा बाप अपने बाप से डरता होगा और  उसके बाप से वो. खैर इस डरने कि परंपरा को मैं भी बखूबी निभा रहा था.

एक दिन वो बहुत रोई थी. उसका बाप भी बहुत रोया था, उसकी माँ भी बहुत रोई थी. उसकी दीदी भाग गयी थी. हाँ, लड़के के साथ ही भागी थी. लड़की-लड़की भागें, या लड़के-लड़के भागें देश ने इतनी तरक्की नहीं की. लेकिन अगर देश इतनी तरक्की कर ले तो भागने की ज़रूरत ही क्यूँ पड़े! मैंने सोचा उसका पी.डब्लू.डी. में इंजिनियर बाप ज्यादा रो ले तो शायद उसके अन्दर का सीमेंट पिघल जाये, लेकिन शायद उसका बाप इतना भी नहीं रोया था. खैर मैंने उसे ढंढस बंधाया और धीरे से कहा कि 'सब ठीक हो जायेगा.' वो मेरे से चिपक गयी और उस दिन हमने एक-दूसरे को पहली बार चूमा. आप इसे कमजोर पल का नाम दे सकते हैं. वो मेरे से चिपकी रही, उतने ही वक़्त जितनी देर में करन जौहर की 'कल हो न हो' फिल्म पूरी हो जाती है. फिर शाम ज्यादा गहरी हो गयी और मैं धीरे से अपने घर चला गया, वो धीरे से अपने घर चली गयी.

उस दिन मुझे माँ ने डांटा. कहा 'रात को देर से घर नहीं आते.' मेरी माँ दुनिया की सबसे प्यारी माँ थी. वो मुझे मारती नहीं थी. जब तक मैं स्कूल में उसके प्रश्नों का गलत जवाब नहीं देता था. वो मेरे ही स्कूल में पढ़ाती थी. उसने आधी संस्कृत पढ़ाते-पढ़ाते सीखी थी. हाँ उसे आधी पहले से आती थी. लेकिन उसे इतिहास का बहुत अच्छा ज्ञान था. इतना कि सन सत्तावन की क्रांति के बारे में रानी लक्ष्मीबाई को भी नहीं पता होगा. (वैसे लक्ष्मीबाई ने पूरी लड़ाई देखी ही कहाँ थी.) वो कभी रोती नहीं थी, जब तक कि मेरा बाप उसपे हाथ नहीं उठाता था. जब मेरा बाप ऐसा करता था मैं उसे मार डालना चाहता था. फिर भी मैं अपने बाप से प्यार करता था.

उसकी दीदी जिस लड़के के साथ भागी थी, उसका नाम रमेश था. वो अच्छा लड़का नहीं था, क्यूंकि वो शराब पीता था और शराब पीने वाले हमारी समाज में अच्छे लोग नहीं होते. वो मंगलवार को चिकन भी खाता था. शायद इसलिए मंदिर के निठल्ले पुजारी वो पसंद नहीं था. हाँ, उसने एक ही लड़की से प्यार किया था. उसने सारी ज़िन्दगी में एक ही लड़की को चुम्बन लिया था और सारी दुनिया से अपना इश्क बचाने एक ही लड़की के साथ भागा था. लेकिन वो अच्छा लड़का नहीं  था क्यूंकि वो उस निम्न जाति का था जो हमारे घर के दरवाजे के सामने से भी चप्पलें उतार के निकलते थे. उनके मंदिर जाने से भगवान् को उतना ही पाप लगता था जितना की हमें मंगलवार को चिकन खाने पे लगता है. वो अच्छा लड़का नहीं था, इसलिए उसे दस-पंद्रह लोग बंदूकें लेकर ढूंढ रहे थे.

'मेरे बाप ने रमेश को मार डाला.' उसने रोते हुए मुझे बताया. मुझे लगा उसके पढ़े-लिखे इंजिनियर बाप में अक्ल नहीं है.(बाद में खुद इंजीनियरिंग की तो पता चला की इंजीनियर्स में अक्ल नहीं होती, और पढने-लिखने से अक्ल नहीं आती! )  'अब वे दीदी को भी मार डालेंगे.' मैंने उसे अपने से चिपका लिया. 'हम दीदी को बचा लेंगे.' मैंने धीरे से कहा. उसने मुझे आश्चर्य से देखा, मैंने उसका चुम्बन लिया, फिर प्लान बताया, उसने खुश होकर मुझे चूमा और हम घर वापस आ गये. उस रात मैंने माँ से झूठ बोला की होमवर्क करने सुमित के घर जाना है. हमने दीदी को बचा लिया. कैसे बचाया ये बात बाद की बात है.

दीदी को बचाने के बाद थोडा मैं बड़ा हो गया, थोड़ी वो बड़ी हो गई. फिर वो कहीं और पढने लगी और मैं कहीं और पढने लगा. मैं उसकी याद में कविता लिखता और वो मेरी याद में गाने गाती.( बाद में मेरी कविताये लोगों को अच्छी लगने लगीं और और उसके गाने. मैं निठल्ला कवि बन गया और वो अच्छी गायिका.) हम एक ही चाँद के नीचे बैठे घंटों एक-दूसरे को ताकते रहते. फिर 'भारत-उदय' हुआ और हमारे हाथों में मोबाइल आ गया. फिर मैं उसके और करीब आ गया और वो मेरे और करीब आ गयी.

वो घर गयी, मैं घर गया. उसने अपने बाप से मेरे बारे में कहा. बाप ने जोर से थप्पड़ मारा और भद्दी-सी गाली दी. वैसी ही गाली जो आप आजकल के लीक से हटकर फिल्म बनाने वाले निर्देशकों की फिल्मों में हर दूसरे लफ्ज़ के रूप में सुनते हैं. लेकिन हम फ़िलहाल उसे 'हरामजादी' मान लेते हैं क्यूंकि मैं फिल्म नहीं साहित्य लिख रहा हूँ और साहित्य समाज का दर्पण होता है. तो दर्पण को हम साफ़ ही रखते हैं और इससे भद्दी गाली में यहाँ नहीं लिखता हूँ. यूँ कहें तो हम समाज को अपनी बदसूरती खुद देखने का मौका दे देते हैं. 

उसे उसी कमरे में बंद कर दिया गया, जहां उसकी दीदी को किया गया था. मैं बिना खाए माँ की गोद में ठूंठ बना लेटा रहा. कहानी का अंत भी यही होता, उसका उस अँधेरे कमरे में मर जाना और मेरा मेरी माँ की गोद में. लेकिन हुआ ये कि एक लड़की ने आकर उसके बाप की हत्या कर दी. अगले दिन के अख़बारों में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- 'बाप की हत्या', और हमने अगले दिन ही शादी कर ली. किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई, क्यूंकि उसके घर में और कोई था नहीं और मेरे माँ-बाप तो मुझसे प्यार करते थे.

हाँ, उसके बाप की हत्या दीदी ने की थी. दीदी को बचाने वाली रात मैं अपने डॉक्टर बाप की नींद की पॉइंट फाइव ग्राम की अल्प्रोक्स गोलियों के तीन पत्ते उठा लाया था. उसने उन्हें बड़ी मेहनत से अपने घर के खाने की दाल में मिलाया था. सब सो गये और हमने तीन दिन की भूखी दीदी को छुड़ा लिया. लेकिन उसकी माँ मर गयी. हुआ ये की दाल ज्यादा बन गई, और हमेशा कम खाना खाने वाली उसकी दुबली माँ ने वो दाल पी ली. वैसे भी औरत की भूख कितनी होती है, बस जितना सबके खाने के बाद घर में बच जाये! ये बात मुझे अपनी माँ से पता चली थी, वो अगर ज्यादा बच जाए तो तो दो रोटियाँ ज्यादा खा लेती थी नहीं तो एक-दो रोटियाँ कम खाती थी, और इसी कम-ज्यादा खाने के चक्कर में वो पहले दुबली हुई फिर मोटी हो गयी थी. मुझे लगता है उसकी माँ भी वैसा ही करती होगी. लेकिन वो दुबली थी, मुझे लगता है, उसकी माँ हमेशा एक-दो रोटियाँ कम ही खाती थी. खैर, ज्यादा दाल मतलब ज्यादा नींद की गोलियां, ज्यादा नींद की गोलियां मतलब मौत.....और उसकी माँ चल बसी. लेकिन उसे दुःख नहीं हुआ, न मुझे दुःख हुआ. क्यूंकि रमेश की हत्या में वो भी बराबर की भागीदार थी.

अब दस साल बाद जबकि भारत-निर्माण हो रहा है, वो यानि कि मेरी बीवी करीना अपनी कार से दीदी यानि कि करिश्मा को लेने जेल गयी है और मैं यानि की 'मैं' आपको अपनी पहली कहानी सुना रहा हूँ. इस कहानी का शीर्षक 'कभी ख़ुशी कभी गम' नुमा सुखद अंत और लकी K - फैक्टर को देखते हुए 'खैर, दिल मिल ही गये' भी हो सकता था (जैसा की ब्लॉग के पते में किया है.), लेकिन मैंने चुपके से ऊपर 'बाप की हत्या' लिख दिया है!