Saturday, September 7, 2013

क़त्ल

यकीन मानिये, ये कहानी नहीं थी. ये आत्महत्या के वक़्त लिखा गया नोट था. लेकिन पुलिस को ये कहानी जैसा लगा था और इसलिए इसे सुसाइड नोट नहीं माना था और फाड़ के फेंक दिया था! पढ़िए और बताइए आपको क्या लगता है :--




मैं लिखता था, लेकिन चूँकि देश के हर लिखने वाले की नियति यह होती है कि वो सिर्फ लिखकर के पेट नहीं भर सकता तो मैं काम भी करता था. आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं, कि मैं काम करता था लेकिन लिखता भी था. वो इसलिए क्यूंकि अब मैं काम हर दिन करता था और लिखता कभी-कभार था. फ़िलहाल मुद्दा ये नहीं है कि मैं लिखता था तो अब सिर्फ कहने को यही बचता है कि मैं काम करता था.

मैं जहां काम करता था वहां एक से लोग थे, एक से कपडे पहिन के हर दिन लगभग एक सा काम करते थे.  ये मुझे बंधुआ मजदूरी का नया सुधरा रूप लगता था. मेरी कंपनी बड़ी थी, जिसके सारे ग्राहक विदेशी थे. 'ग्राहक' सुनकर आप अपना खाली दिमाग नहीं चलाईएगा क्यूंकि मैं किसी लाल-बत्ती-क्षेत्र (आप अपनी भाषा में रेड लाइट एरिया भी बोल सकते हैं.)  में काम नहीं करता था. हाँ 'विदेशी' सुनकर ज़रूर आप कुछ कह सकते हैं. चलिए आप नहीं कहते तो मैं ही कहे देता हूँ, आपको इस तरह का काम नये तरीके कि गुलामी लग सकता है और दफ्तर किसी विदेशी हुकूमत की जेल.

मेरे आस पास जितने भी काम करते थे उन्हें सिर्फ काम से मतलब था, उन्हें बाहर की दुनिया नहीं पता थी. मैंने अपनी 'लीड' (जिसे फिर से आप अपनी भाषा इस्तेमाल करके 'बॉस' कह सकते हैं.) से कहा कि 'सचिन ने खेलना छोड़ दिया है.' उसने मुझे देखा, इस तरह से देखा जैसे मैंने किसी दूसरी दुनिया की कोई बात की हो. फिर कड़क के दक्षिण भारतीय हिंदी में पूछा कि ' एम् आर डी की सोर्स फाइल्स कॉपी हुआ की नहीं?' (एम् आर डी वाली बात में आपको आपकी भाषा में नहीं समझा सकता क्यूंकि समझाते-समझाते ही ये कहानी ख़त्म हो जाएगी फिर भी आप पूछेंगे कि ये एम् आर डी  होता क्या है. फ़िलहाल इतना समझ लीजये कि कोई पकाऊ सा काम है, जिसे करना ज़हर पीने के बाद मरने का इंतज़ार करने जैसा है.) फ़िलहाल मुझे हंसी आ गयी. इसलिए नहीं कि उसे कुछ नहीं पता था, इसलिए की आप ये समझते हैं कि क्रिकेट देश का सबसे पसंद किया जाने वाला खेल है और सचिन भगवान् की तरह है. गनीमत ये थी कि मैंने काम कल ही देर रात दस बजे तक दफ्तर में बैठ के ख़त्म किया था तो 'लीड' को अपने प्रश्न का उत्तर सकारात्मक मिला और मैं और भी कुछ सुनने से बच गया. फिर मैंने अपने पास बैठे दिनेश से पूछा, उसने भी मुझे अजीब तरीके से देखा जैसे मैंने उसकी बहिन की ख़ूबसूरती की चर्चा कर दी हो. हाँ, मैं ये सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, कि आपको ये न लगे कि मेरी 'लीड' औरत थी तो शायद उसे क्रिकेट के बारे में पता नहीं होगा.

'लीड' बनना कोई छोटी बात नहीं होती, क्यूंकि उसके लिए आपको सुबह आठ से शाम, माफ़ कीजिये रात दस बजे तक छ:- सात साल तक काम करना पड़ता है. हाँ लेकिन उसके बाद आपको ज्यादा काम करने की ज़रूरत नहीं होती, क्यूंकि आप आराम से अपना काम दूसरों पे थोप सकते हो. आप आराम से दूसरों पे हुक्म चला सकते हो या दूसरों के काम के बीच अपनी भद्दी सी फटी बिवाई वाली टांग अड़ाकर उसे परेशान कर सकते हो. कभी-कभी तो किसी के द्वारा किये काम का श्रेय भी ले सकते हो. हाँ आपने पिछले छ:- सात साल सिर्फ काम करते गुज़ारे हैं तो अब आप उसका गुस्सा भी लोगों पे निकाल सकते हो. ऐसे ही एक बार मैंने अपने पुराने 'लीड' से पूछा था, कि वो मुझे कुछ चीज़ समझाएगा क्या? लेकिन उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ खा जाने वाली नज़रों से देखा और कहा कि मैं खुद सीख लूँ, क्यूंकि उसने भी भी खुद ही सीखा था, और मेरा बाप उसे सिखाने नहीं आया था. मैंने उसकी बात को अपने सर मैं बैठा लिया और खुद ही सीखा. लेकिन सीखने के बाद में बहुत हंसा, क्यूंकि मुझे पता चल गया था कि जो मेरे लीड को आता है वो अधूरा ज्ञान है. लेकिन मैंने उसकी गलतियां उसे नहीं बताईं क्यूंकि मैं शायद उसके अहं में छेद कर बात आगे नहीं बढाना चाहता था.

मेरे पुराने और नये लीड के बीच सम्बन्ध थे, ये बाद मुझे बाद में पता चली. इस बार आप सही हैं, उन दोनों के बीच अनैतिक सम्बन्ध ही थे. दोनों ही भद्दे लगते थे, लेकिन उनके बीच सम्बन्ध थे. अक्सर हम मान लेते हैं कि एक खूबसूरत लड़का और एक खूबसूरत लड़की ही प्यार कर सकते हैं. हमारी फिल्मों में भी यही दिखाया जाता है. लेकिन आदतन प्यार अंधा होता है तो एक भद्दी औरत के एक भद्दे आदमी से सम्बन्ध थे. खैर, मुझे उनके अनैतिक संबंधों से कुछ लेना-देना नहीं था. बात ये थी कि वो ऑफिस के वक़्त बाहर घूमने जाते थे और अपनी लीड का काम हमें करना पड़ता था. जो बंटकर मेरे हिस्से में पच्चीस प्रतिशत आता था. पच्चीस प्रतिशत मतलब दो घंटे ज्यादा, दो घंटे ज्यादा मतलब दस बजे तक काम करना. इतना काम करना मुझे कतई पसंद नहीं था और मेरी हिम्मत जवाब दे देती थी. मैं बेहताशा थक जाता था.

मैं परेशान था. काम के बोझ तले दबा महसूस कर रहा था. एक दिन मैं बीमार पड़ गया. मैंने अपनी लीड को बताया. लेकिन आपको जैसे पता ही है जहां मैं काम करता था वहां सबको मशीन समझा जाता था और आपका बीमार होना किसी कंप्यूटर प्रोग्राम में वायरस आने जैसा था. शायद इसीलिए उसने मुझपे चिल्लाया कि 'मैं कैसे बीमार पड़ सकता हूँ?' उसकी इस हरकत पे मैं हंसना चाहता था क्यूंकि बीमार 'कैसे पड़ा' ये तो बीमार पड़ने वाले को भी नहीं पता होता! लेकिन शायद मैं बीमार था तो मैंने रो दिया. उसदिन मैं बरसों बाद रोया था. मुझे माँ की बहुत याद आ रही थी मैंने अपनी माँ को फ़ोन किया, लेकिन मैं माँ के सामने रोना नहीं चाहता था, क्यूंकि इससे माँ परेशान हो जाती. 'कैसे हो बेटा?' माँ ने पूछा. मैंने 'अच्छा हूँ' जवाब दिया फिर उगते सूरज, पूरे चाँद और तारों की बातें की. घर के क्यारी में खिले फूलों में बारे में पूछा और सावन की बारिश का हाल बताया. जब उसे यकीन हो गया कि मैं खुश हूँ तो मैंने फ़ोन रख दिया.

मैं 'शम्भू के रेस्तरां में खाना खाता था. वो अच्छा खाना खिलाता था. वो 35  रूपये में एक थाली खिलाता था. खाना अच्छा था क्यूंकि 35 रूपये में था. हाँ, उस अच्छे खाने की दाल पतली होती थी और सब्जी में एकाध बार कीड़े भी निकले थे. वो बारस सौ किलोमीटर से यहाँ रेस्तरां खोलने आया था और यहाँ की भाषा भी सीखी थी, इसलिए ज्यादा पैसे कमाना अपना हक समझता था. इसीलिए सब्जी में हमेशा सड़े टमाटर ही डालता था. मुझे पहले से ही शक था इसका खाना खा के मैं बीमार पडूंगा लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था. ऑफिस से आते-आते मुझे दस बज जाते थे और उसके बाद न तो खाना बनाने कि इच्छा होती थी न ही हिम्मत.

मैं चीज़ें भूलने लगा था. मुझे पहले लगा शायद ये मेरा भ्रम है लेकिन फिर गूगल पे ज्यादा तनाव से होने वाली इस बीमारी के बारे में पढ़ा तो मुझे इस भूलने की बीमारी के बारे में पता चला. एक दिन में ऑफिस के लिए निकला लेकिन भूलने के कारण में बाज़ार पहुँच गया. वहां मैंने कच्चे आलू खरीद कर खाए. यकीन मानिये मैंने कच्चे आलू ही खाए थे. हाँ कच्ची प्याज नहीं खाई थी. प्याज ने एक बार देश की सरकार गिराई थी शायद इसलिए मैं उससे डरता था. जब मुझे होश आया तो भागता ऑफिस पहुँचा, लेकिन देर से पहुंचा और फिर डांट खाई.

एक बार मैंने 'शम्भू के रेस्तरां' में खाना खाया. जैसा कि  आपको पता है, बिल 35 रूपये आया. कोई नेता ये कह सकता है कि मैंने तीन लोगों का खाना एक साथ खाया है. क्यूंकि देश में भरपेट खाना अब भी 12  रूपये में मिलता है. खैर, मैंने पैसे देने जेब में हाथ डाला लेकिन शायद मैं पर्स भूल गया था.(लड़कियों को आपत्ति हो तो वो पर्स को वॉलेट भी पढ़ सकती हैं.) मैंने दस मिनट में पैसे लेकर आने का वादा किया, लेकिन बदले में उसने मेरा मोबाइल गिरवी रख लिया. दस मिनट बाद में पैसे लेकर आया तो उसमें माँ के 16 मिस्ड कॉल थे. उन्होंने बार-बार फ़ोन किये शायद उन्हें कोई अनहोनी की आशंका हुई होगी. (बाद में मैं मुझे पता चला कि माँ को अपने बच्चों कि नियति पहले से पता होती है!) वो फ़ोन पे रो दी. मैंने झूठ बोल कि मैं बाथरूम था. वो चुप हो गई. मैं दस मिनट चुपचाप सड़क पे बैठा रहा.

मैं कभी-कभी नित्या को फ़ोन करना चाहता था. नित्या मेरा पुराना प्यार थी. हमने एक ही कॉलेज से पढाई की थी. साथ-साथ चार साल गुज़ारे थे. हम एक दुसरे के बहुत पास था. शायद इसलिए क्यूंकि हमने एक ही कॉलेज में नहीं एक ही रूम में भी पढ़ा था, और पढने के अलावा और भी कुछ किया था. हर बार उस 'कुछ' के बाद कपडे पहिनने से पहले हम एक ही ख्वाब देखा करते थे, जिसमें हमारे तीन-चार छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे. अब आप उत्सुकतावश उन बच्चों का जेंडर मत पूछियेगा, क्यूंकि हमने ख्वाबों में बच्चों की चड्डी उतार जेंडर नहीं देखे थे. पहले हम बहुत बातें किया करते थे, लेकिन फिर में व्यस्त हो गया और वो नाराज़ हो गई. इसे मैं उसकी गलती नहीं कह सकता, क्यूंकि मेरे पास ही वक़्त नहीं था. लेकिन ये मेरी भी गलती नहीं थी. किसी ने समझदार आदमी ने था कि लम्बी दूरी का प्यार (आपकी भाषा में लॉन्ग-डिस्टेंस-रिलेशनशिप)  नहीं चलता , ये उसी आदमी की समझदारी का परिणाम था. खैर, धीरे-धीरे नित्या में मेरा फ़ोन उठाना बंद कर दिया और मेरे प्यार का अंत हो गया, और हमारे बच्चे कभी ख्वाबों से बाहर ही नहीं निकले!

मैं निराश था और निराशावश मैंने लौट के घर जाने का सोचा. घर पे मैं फिर से लिखना शुरू कर सकता था. लेकिन फिर मैंने ये ख़याल त्याग दिया. हुआ ये था कि एक बार मैंने 'बाढ़-राहत-कोष' में पाँच हज़ार रूपये जमा किये थे. जब मैंने ये बात अपने बाप को बताई तो उन्होंने कहा कि 'बीस हज़ार कमाने वाले पांच हज़ार दान नहीं करते.' उसके बाद उन्होंने बहुत सी बातें की जो मुझे कुछ-कुछ गाली जैसी लगी थी और मैं उन्हें यहाँ दुहराना नहीं चाहता. मैं सिर्फ लिखने से बहुत सारे पैसे नहीं कमा सकता था और उनसे पैसे मांगने से डर रहा था.

आखिर मैंने आत्महत्या करने की सोची. हाँ, इस चकाचौंध भरी दुनिया से, जहाँ एकबार मैं खुद ही आना चाहता था, काम करना चाहता था, से आखिर निराश होकर मैंने आत्महत्या करने की सोची. आत्महत्या बड़ा अजीब ख़याल होता है. खुद को मारना बड़ा अजीब ख़याल होता है. यह आपको पापी बना देता है, कमजोर प्रदर्शित करता है. इसलिए मैंने आत्महत्या का ख़याल त्याग दिया. लेकिन इसे हादसे का रूप देने का सोचा. मैंने दौड़ते हुए, दौड़ती कार के सामने आने का सोचा, लेकिन इस तरीके से बेगुनाह कार वाले को जेल जाना पड़ सकता था. लेकिन फिर मुझे लगा हम सब अपनी ज़िन्दगी में दो-चार दिन जेल में बिताने लायक गुनाह तो करते ही हैं, तो एक रात मैं तेजी से दौड़ती कार के सामने तेजी से आ गया. मैं दो मीटर दूर उछला और मर गया. लोगों ने कार को घेर लिया. कार में से एक औरत निकली. वह औरत मेरी लीड थी. मैं मरते-मरते भी अपनी मौत और उसकी किस्मत पे मुस्कुरा दिया.

अगले दिन अखबार में खबर छपी, 'फलाना सूचना प्रोद्योगिकी कंपनी में काम करने वाला चौबीस वर्षीय 'ढिमका' सॉफ्टवेर इंजिनियर सड़क हादसे में मारा गया.....' पुलिस ने इसे हादसा कहा था. मैंने आत्महत्या का नाम दिया है. लेकिन पढने के बाद आप समझ सकते हैं कि ये एक क़त्ल था. अत्यधिक काम और तनाव द्वारा किया गया क़त्ल!

(देश में हर साल औसतन 9500 लोग अत्यधिक काम से तनाव में आ आत्महत्या करते हैं. लेकिन बस खनकते पैसे गिनने वाली सरकार बहादुर चुप है और हम-आप के पास तो ये सोचने का वक़्त ही नहीं है!)

[ चित्र 2011 में प्रदर्शित मेरी फेवरेट फिल्म 'शेम', अभिनेता 'माइकल फ़ासबेंडर' का है. अगर आप वालिग है तो ही इसे देखिये, क्यूंकि ये एक NC-17  सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्म है. ]

1 comment:

Unknown said...

sahi h...our blood is sucking by different people jo apne benefit k liye dusro k upar apna kaam thote h...Lyf is stressful...