Saturday, October 18, 2014

आत्मकथा



'तुम अब क्या करोगे?' उसने मुझे चूमते हुए कहा.
'बाद में बताता हूँ.' मैंने उसे चूमा.
हम दोनों आधे घंटे बाद नीले चादर में लिपटे छत ताकने लगे. इस तरह के कर्म के बाद लोगों को चाँद- तारे नज़र आते हैं, जिन्हें वे औकाद से बाहर जा तोड़ लाने की बात करते हैं..... लेकिन मुझे बस एक छत नज़र आ रही थी. उसकी खूबसूरत सी सीलिंग पे सफ़ेद पंखा लटक रहा था.
'कल मुझे एक दाढ़ी वाले नेता का इंटरव्यू लेना है.' उसने कहा.
'क्या पूछोगी?' वैसे ये नाहक ही घटिया सवाल था. इंटरव्यू उसे लेना था लेकिन प्रश्न किसी और को लिखने थे, ये मैं जानता था.
'पूछने को तो पूछ लूँ कि दंगे-फसादों में साथ न भी दिया हो तो भी मुख्यमंत्री रहते उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही थी. निष्फलता ही तो है उनकी ये. जब भी मैं मोहल्ले की लड़कियों को पीट के आती थी, मेरा बाप जिम्मेदारी लेता था. तुम्हें नहीं लगता, उसे ऐसा करना चाहिए था?' उसने मेरी तरफ आँखे कर कहा.
मेरी आँखें उसकी आँखों से मिली, हम एक दूसरे को तकते रहे, मैंने फिर उसे चूमा और बस 'नहीं.....' कहा.

उस दिन उसने लाइव इंटरव्यू में ऐसे ही ऊट-पटांग सा सवाल पूछ लिया. मैंने टीवी पे देखा था. इंटरव्यू निहायत ही अच्छा बन पड़ा था. दूसरे चैनल्स को ब्रेकिंग न्यूज़ मिली. कृति को इंटरव्यू लेने के बदले में इनाम के तौर पे टीवी एडिटर की दो भद्दी गालियां मिली, तीन महीने की सैलरी और नौकरी से निकाले जाने का पत्र मिला. मुझे कुछ कुछ कृति पे तरस आया, कुछ कुछ टीवी एडिटर पे हंसी. अब हम दोनों ही बेरोजगार हो गए थे.

'आगे क्या करेंगे अब?' उसने घर आते ही पूछा.
'मैं हमेशा की तरह तुम्हारे लिए खाना बनाऊंगा, तुम टीवी देखना फिर हम सोने चले जायेंगे.' मैं मुस्कुराते हुए जवाब दिया.
'बेवकूफ, अपनी ज़िन्दगी का.'
'तुम्हें पता है दंडकारण्य में हर दिन 20 आदिवासी मरते हैं. वर्धा मेरे साथ काम करने चलोगी?' इस तरह का प्रश्न आज पूछना ऐसे ही था जैसे कि बम को आग लगाना और चुपचाप उसके पास बैठ उसके फटने का इंतज़ार करना.
'ब्लडी लेफ्टिस्ट....' उसने मेरी तरफ गुस्से में अपना हैंड बैग फेंका. भला हो बचपन में क्रिकेट खेलने का कि मैंने उसे खूबसूरती से साथ कैच कर लिया.

वो मेरे पास आई. मुझसे चिपट गई. मैं उसे ढांढस बँधाना चाहता था. कहना चाहता था कि ये सिर्फ एक नौकरी है जो फिर से आ जाएगी. दुनिया चौराहा है और नौकरी ऑटो, और चौराहे पे हम दूसरी ऑटो पकड़ सकते हैं. लेकिन मुझे पता था ये सच नहीं है. इसलिए मैंने सिर्फ उसकी पीठ सहलाई.

'तुम्हें पता है न तुम्हारा लिखा अब कोई पब्लिश नहीं करता, तुम्हारी किताबें और पुतले बीच बाजार जलाये गए हैं और तुम्हारा कॉलम अब कोई अख़बार प्रकाशित नहीं करना चाहता.' उसने मुझे हक़ीक़त बताई. वही हक़ीक़त जो दो साल से घर में बैठा उसकी नौकरी के बल पे जी रहा था.

'मैंने जिन के बारे में लिखा है वो मारे गए हैं. नक्सली हमने पैदा किये. गरीबी ने आठ हज़ार में जान देने वाले सी. आर. पी. ऍफ़. के लोग हमने बनाये. अब कोई भी मरे मरेंगे हम ही न, हमारे लोग ही न. हमारे नागरिक ही न.' मैंने उससे वही बात दोहराई जो मैं पिछले पांच सालों से अख़बारों के कॉलम में लिख रहा था. किताबों में जुबान दे रहा था और जिसकी वजह से आज बेरोजगार था.

'हम जिम्मेदार नहीं हैं, न तुम, न मैं. ये खादी वाले ज़िम्मेदार हैं,  बिजिनेसमैन जिम्मेदार हैं. हम नहीं.'

'तो तुमने आज दाढ़ी वाले नेता से उसकी जिम्मेवारी क्यों मांगी?'

'क्यूंकि मैं भी इंसान हूँ और मेरा भी दिल इन घटनाओं से दुखता है. लेकिन मैं तुमसे अलग हो के नहीं जी सकती न तुम अकेले काम कर पाओगे. मैं वहां भी नहीं जा सकती, क्यूंकि मैं माँ हूँ और कृतिका उस वीराने में न पढ़ पायेगी न रह पायेगी. डेंगू, मलेरिआ, मच्छर.....कैसे रहेगी वो?'

मैं निढाल हो बैठ गया. दो साल कि मेरी कृतिका का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था. 'मुझे अपनी बेटी की तरह वहां मरने वालों के बच्चों की भी फ़िक्र है.' मैंने कहा. वो चुप थी और अगले कई दिनों चुप ही रही. जब तक कि मैं चला नहीं गया. इस बीच उसके पिता आये. उन्होंने कृतिका और  कृति को अपने साथ चलने को कहा. मेरे पास भी बैठे. हम चुप ही बैठे रहे. 'तुम गलत नहीं हो लेकिन इस वक़्क़त सही भी नहीं लग रहे.' उन्होंने कहा और चुप्पी में ही चले गए.

आप मुझे पलायनवादी कह सकते हैं. बेवकूफ कह सकते हैं. कृतिका 15 साल बाद समझदार होने पे भगोड़ा कह सकती है....और मैं अपने आप को भी इसके आस-पास ही समझता हूँ. लेकिन बेवकूफी सर पे चढ़ती है तो हम इंसान नहीं रह जाते. लोगों के लिए तो नक्सली भी इंसान नहीं है. फ़िलहाल, देवपुरिया गांव में जा मैंने एक स्कूल खोला. शुरू में दस फिर पच्चीस और सात साल गुज़रते ढाई सौ बच्चे उसमें पढ़ने आने लगे. कुल आठ गांव से बच्चे आते थे. कुछ अध-पढ़े आदिवासी भी साथ पढ़ा रहे थे. इन सालों में मैंने कितनी मेहनत की वो बता मैं अपना दीर्घ-संघर्ष नहीं बताना चाहता लेकिन मैंने जिनके बारे मैंने लिखा, जो सोचा और जो अपने कॉलम से सबको करने को कहा, वही मैं कर रहा था. मेरा लिखा व्यर्थ नहीं था और मैं कोरा लेखक बस नहीं था, आप ये मान सकते हैं. हर दिन देश की समस्याओं पे कॉफ़ी टेबल डिस्कशन करने वाले मेरा नाम ले सकते हैं लेकिन सरकार की नज़र में मैं नक्सली था. मेरा स्कूल तीन बार तबाह किया गया. दो बार मुझे जेल में ठूंसा गया और एक बार कंधे पे गोली मारी गई.

एक दिन सारी हदें पार हो गई. एक केंद्रीय स्तर के नेताजी ने कुल चालीस लठैत भेजे जिन्होंने अस्सी झोडियों के गांव को तहस-नहस कर डाला. स्कूल की ऐसी हालत की गई की वो देखने लायक नहीं बचा. गांव के लोग अब अध-पढ़े थे तो हम सबने मिलकर पुलिस से शिकायत की. लेकिन उसी रात मेरे स्कूल की बाइस साल की अध-पढ़ी शिक्षिका का बलात्कार हुआ. नेताजी का भतीजा, पुलिस और लठैत पोलिस थाने में अस्मिता लूट रहे थे. थाने की दीवार पे लिखा था- "सदरक्षणाय खलनिग्रहणाय" यानि 'अच्छे की रक्षा और बुराई को दण्डित करने के लिए.' और बगल में टूटे फ्रेम में गांधी जी की खोपड़ी चमक रही थी. मैं एक जेल में बंद था और तमाम चीखें मेरे सीने से हो दिमाग को छलनी कर रही थीं. दिल्ली की गलियों में सुना था की कभी अहमद अब्दाली ने कत्ले-आम किया था. बलात्कार किये थे, धन-दौलत लूटी थी. मेरी आँखों के सामने वो सब सच हो रहा था. उस वक़्त में दुनिया का सबसे लाचार इंसान था.

 मैं देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी का पढ़ा-लिखा नौजवान ( चौतीस के में लोग नौजवान ही होते है.) थक चुका था. शायद कोई भी थक सकता था. कोई भी मतलब कोई भी. आप भी और वो अनपढ़ आदिवासी भी जिनका सबकुछ एक झटके में छीना जाता है.

इस थके इंसान ने ज़िन्दगी का आखिरी ख़त लिखा.

'प्यारी कृति,

मुझे पता है तुम खुश नहीं हो. मुझे पता है मैं एक बेहतर पति नहीं बन पाया. एक गैर जिम्मवार पिता हूँ. लेकिन मुझे पता तुम मुझसे खफ़ा नहीं हो.... क्यूंकि तुम मेरे जैसे हो. हम एक से हैं. हमारे सीने मैं दिल है जो सिर्फ अपनों के लिए नहीं धड़कता. जो उनका दर्द भी महसूस करता है जिन्हें हम जानते नहीं हैं.

यहां के नेता 'न कोई पढ़ेगा, ना बढ़ेगा, न अपने अधिकार के लिए खड़ा होगा' नीति अपनाये हुए हैं. यकीन करो यहां की समस्याएं अगले सौ बरसों में इस तरह ख़त्म नहीं हो सकती. मेरे अकेले के प्रयास से तो बिलकुल नहीं. हाँ इन वर्षों में मैंने जिनको पढ़ाया है वो शायद खुद खड़े हो अधिकारों को बिना हथियार के पाने की कोशिश करें लेकिन मैं थक चुका हूँ. शायद दिल्ली में रह कोई भी नहीं समझ सकता मेरा थकना क्या है....शायद तुम भी नहीं.

अपना ख़्याल रखना,
विनीत सुरेश '

मैंने खत पोस्ट कर दिया. अगले दिन मैं नेताजी से मिलने गया. जैसा मैंने बताया वे एक राष्ट्र स्तर के बहुत बड़े नेता थे, जिनके चश्मे से उनकी आँखों की हैवानियत ढकी रहती थी. मैंने उनके सीने में, माथे पे, पेट में कई गोलियां दाग दीं. उतनी ही जितने में किसी की शक्ल भी पहचान में नहीं आती. मैं कितना सही था कितना गलत ये तो आप बता सकते हैं या वक़्त; लेकिन मैं यानि एक पढ़ा-लिखा शिक्षक जो अपना सर्वस्व छोड़ बहुत कुछ बदलने चला था, एक हत्यारा बन गया था. कौन जिम्मेवार है वो आप ही पता कर लेना. बाकि आगे की कहानी ये है कि मेरा हश्र वही था जो एक हत्यारे का होता है.

कुछ दिन बाद कृति का खत आया जिसमें लिखा था कि वो मुझसे आज भी उतना ही प्यार करती है और उसे मुझ पे गर्व है लेकिन वहां पढ़ने के लिए मैं नहीं था.

पंद्रह साल बाद बाईस साल की कृतिका ने मुझपे किताब लिखी- 'एक नक्सली की आत्मकथा' जिसके पहले पन्ने पे लिखा था- 'मुझे अपने पिता पे गर्व है.' आदतन उसपे भी सरकार ने बैन लगा दिया.


                                          " पापी कौन? मनुज से उसका
                                           न्याय चुराने वाला?
                                           या की न्याय खोजते विघ्न का
                                           शीश उड़ाने वाला? "
                                                                   -रामधारी सिंह 'दिनकर'


[ फोटो rediff.com से. खून है, खोके हैं.… दोनों पे नहीं लिखा कि जवान के हैं या नक्सली के… इंसान की कारगुज़ारी ज़रूर लगती है. ]

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