Monday, September 23, 2013

शक



अक्सर कहानियाँ वहां से शुरू नहीं होती जहाँ से हम सोचते हैं, हर कहानी का एक 'कल' होता है, एक आम इन्सान की तरह. इस कहानी का भी था. फ़िलहाल, ये कल के ही अख़बार में छपी घटना थी और इस कहानी में बताये गये सारे पात्र और घटनाएँ सच हैं, और सत्य से किसी भी असमानता के लिए लेखक की कमजोरी माना जाये! हाँ, किरदारों के नाम और स्थान बदल दिए गये हैं और एक पात्र के शरीर में मैं घुस गया हूँ, क्यूंकि अपने मुंह से कहानी कहना मुझे ज्यादा प्रिय है.

मैं पढ़ रहा था, कहानी नहीं, किसी का मेल था. इक लड़की का. उसके अनुसार वो मेरी बहुत बड़ी फैन थी और उसने मेरी लिखी सारी कवितायेँ पढ़ी थी! मुझे ये पढना नया नहीं था और ऐसे मेल मुझे अक्सर आते थे, लेकिन नया ये था कि वो लड़की लगभग मेरी हमउम्र थी और अंत में उसने मुझे 'आय लव यू' लिखा था. मैं उसी लड़की ख्यालों में खोया था कि फ़ोन की घंटी बजी. 
'हेलो, पहचाना?'
'नहीं, मैंने नहीं पहचाना.' मैंने सपाट सा उत्तर दिया. फ़ोन पे किसी के शक्ल तो दिखाई नहीं देती की मैं किसी अजनबी को पहचान पाता.
'मैं बोल रहा हूँ विशाल.'
'कौन विशाल?'
'दिव्या का फियोंसे (मंगेतर)'
'हाँ कहिये.' मैंने अपनी साँस रोककर कहा. दिव्या मेरी 'एक्स' थी शायद मैं उससे अब भी प्यार करता था और शायद वो भी करती थी.(या शायद ये बस मेरा भ्रम था.)
'तुम अब भी उसे फ़ोन करते हो. फिर कभी मत करना! समझे' गुस्से में मुझसे कहकर फ़ोन काट दिया गया.

मैं कुछ देर फ़ोन हाथ में लिए ही खड़ा रहा. यकीनन मुझे ये चौंकाने वाली बात थी, क्यूंकि मुझे जहाँ तक याद था, लड़कियां शादी के पहले अपना अतीत नहीं बताती और शायद दिव्या जब तक मेरे साथ रही कभी भी इतनी ईमानदार नहीं रही. उसने न तो मुझे अपना पहला प्यार बताया था न पहला चुम्बन! फ़िलहाल मैंने इस बात को रफा-दफा मान लिया और अपने को अपनी कविताओं की कसम दे दी कि कभी दिव्या को फ़ोन नहीं करूँगा.

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे, मैं अपनी उसी प्रशंसक का मेल पढ़ रहा था. यकीनन मैं उसकी तरफ झुकाव महसूस कर रहा था और ये गलत भी नहीं था. मैं उसके मेल का जवाब देने ही वाला था कि मेरा फ़ोन बजा.
'मैं विशाल बोल रहा हूँ.' वहां से आवाज़ आई. ये जानी-पहचानी आवाज़ थी. मैं चौंक गया, इसलिए नहीं कि ये दिव्या के फियोंसे का फ़ोन था, इसलिए कि मैं उस घटना को एक महीना बीत गया था और मैं उसे लगभग भूल गया था. उसके पिछले फ़ोन के बाद से मैंने दिव्या को भी फ़ोन नहीं किया था.
'तूने साल्ले किया क्या है? तू अब भी उसके अन्दर है.' उसने लडखडाती आवाज़ में कहा. शायद वो शराब पिए था, नहीं शायद शराब उसे पीये थी!
मैंने उसे समझाने की कोशिश की. 'किसी इन्सान का पहला प्यार बनना कोई बड़ी बात नहीं, बनना है तो आखिरी प्यार बनो. ये मत सोचो कि तुमसे पहले उसे किसी से प्यार था या नहीं, कोशिश करो कि तुम्हारे बाद किसी और के प्यार की आवश्यकता ही न पड़े.' और 'इक रेखा को छोटा करने के लिए उससे बड़ी रेखा खींचनी चाहिए' जैसे पढ़े-पढाये डायलॉग भी मारे. लेकिन शायद वह सुनने वाला नहीं था.
'मैं उसे भी देख लूँगा और तुम्हें भी. पुणे मैं हत्या करवाने के सिर्फ अस्सी हज़ार लगते हैं.' कह के उसने फ़ोन काट दिया.

उसके फ़ोन काटते ही मैं परेशान हो गया. उसकी 'अस्सी हज़ार' वाली बात के लिए नहीं, दिव्या के लिए. मैं उसे बताना चाहता था, चीख चीख के कहना चाहता था कि ये अच्छा लड़का नहीं है, शायद वो तुम्हें मार भी डाले. लेकिन मैंने फ़ोन नहीं किया, उसके पीछे दो कारण थे, पहला, कि मैंने अपने को अपनी कविताओं की कसम दिलाई थी कि मैं कभी दिव्या को फ़ोन नहीं करूँगा....और दिव्या के जाने के बाद अब मेरे पास सिर्फ मेरी कवितायेँ ही बची थी जिन्हें मैं खोना नहीं चाहता था और दूसरा ये कि ये शादी दिव्या के बाप द्वारा तय की गयी थी. क्यूंकि मैं विजातीय था और विजातीय लड़के अच्छे नहीं होते! वैसे भी इश्क तो पाप है. हाँ कृष्णा ज़रूर पूज्य हैं और कृष्णा के साथ रुक्मणी नहीं राधा को पूजते हैं. फिर भी इश्क गुनाह है!! फ़िलहाल मैंने फ़ोन न करने का निश्चय किया, लेकिन परेशान था तो अपने सबसे अच्छे दोस्त को फ़ोन किया.

'अबे इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है. वो तुझे मारे उससे पहले तू उसे मार दे. नागपुर में अपने सईद भाई आम आदमी का क़त्ल करने के बस सत्तर हज़ार लेते हैं. हाँ, कोई बड़ा आदमी है तो सत्तर लाख भी हो सकता है.' उसने सबकुछ सुनने के बाद कहा. मैंने उसकी बात को नकार दिया क्यूंकि मैं अपने लिए नहीं दिव्या के लिए परेशान था और फिर कवियों के पास सत्तर हज़ार रूपये भी तो नहीं होते! 

फ़िलहाल न तो मेरा क़त्ल हुआ और न ही मैंने सईद भाई को याद किया, और ऐसे ही छ: साल बीत गये. हाँ, ये ज़रूर हुआ कि मुझे अपनी मेल वाली प्रशंसक से इश्क ज़रूर हो गया और मेरी पहली किताब के बेस्ट सेलर होते ही हमने शादी कर ली. हाँ, इक-दूसरे का अतीत जाने बिना.

अब मैं सम्मानित लेखक था और मेरे पास पैसा था, जिससे मैंने इक गाड़ी, घर और घर में बड़ी सी एल. इ. डी. टीवी खरीदी थी जिसपे मैं न्यूज़ देख रहा था, कि इक खबर ने मेरा सिर घुमा दिया.
'नागपुर के फलाना इलाके में रहने वाली दिव्या अग्निहोत्री की लाश मिली. उसके परिवार वाले इसे आत्महत्या कह रहे हैं लेकिन पुलिस को उसके पति विशाल अग्निहोत्री पे शक.' 

यक़ीनन ये चौंकाने वाली खबर थी, क्यूंकि छ: साल बाद भी मैं दिव्या के मासूम चेहरे को पहचान सकता था. मेरा पहला प्यार और दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की! जिसको कभी डांटते-डांटते भी मैं रो दिया करता था वो अब इस दुनिया मैं नहीं थी.... जिसको कभी मैंने गुस्से से देखा तक नहीं था उसकी हत्या हुई थी....और हत्या करने वाला उसकी अपनी जाति का था, मैं विजातिया नहीं!

इक हफ्ते बाद मैं और मेरी पत्नी टीवी देख रहे थे कि फिर से इक खबर आई. 'नागपुर के फलाना जगह रहने वाले विजय अग्निहोत्री की हत्या. गौरतलब है कि इक हफ्ते पहले उनकी पत्नी की भी मौत हुई थी.' 

शायद मेरे द्वारा ट्रान्सफर किये इक लाख रूपये सईद भाई के पास सही वक़्त पे पहुँच गये थे. मैंने पत्नी के सामने थोडा सा शौक व्यक्त किया, जैसा कि हर बार ऐसी खबर सुनने के बाद करता था. किसी को शक भी नहीं हुआ कि मैंने दिव्या की हत्या का बदला लिया है!

इस कहानी का अंत यही था और ये कल के 'द हिन्दू' की खबर थी. हाँ, मैं जिसका किरदार निभा रहा हूँ वो इक मैनेजमेंट गुरु है और उसके अनुसार इस कहानी के दो निष्कर्ष निकल सकते थे-
पहला, इतने ईमानदार भी न बनो की ईमानदारी आपकी जान ले ले.
दूसरा, शक मत करो, शक कि दवा नहीं होती. आज में जियो ज़िन्दगी खुशहाल बनेगी.

लेकिन मैं लेखक हूँ तो उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब पति का अतीत जान शक में कोई औरत किसी आदमी की हत्या करेगी. यकीनन ऐसा देखने मुझे शायद वर्षों इंतज़ार करना पड़े क्यूंकि औरतें पतियों के हज़ार अतीत सह सकती हैं और हजारों गलतियां माफ़ कर सकती हैं लेकिन आदमी कभी औरत का इक अतीत भी बर्दाश्त नहीं कर सकता! यकीनन मुझे समाज बदलने तक इंतज़ार करना पड़ेगा!

[ चित्र 1974  में प्रदर्शित 'आप की कसम' फिल्म का जिसका 'जय-जय शिवशंकर' गाना आपकी जुबान पे भी चढ़ा होगा. फिल्म ज़रूर देखिये और कुछ शिक्षा लीजिये!]

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