Monday, January 6, 2014

शमलीपुर का इशक़





[ इस कहानी का मुज़फ्फरनगर/शामली या किसी अन्य घटना से कोई भी समानता नहीं है. यदि आप इसे किसी घटना से जोड़तें हैं या संयोग पाते हैं तो तो ये आपकी योग्यता है. इसके जिम्मेवार आप और सिर्फ आप हैं, लेखक नहीं.]


बात कुछ ज्यादा नहीं थी. बात कविता की थी और बात शहजाद की थी. कविता को शहजाद पसंद था और शहजाद को कविता. लेकिन बात गौरव की भी थी, बात आस्मा की भी थी.  गौरव  कविता का भाई तो आस्मा शहजाद की बहिन.गौरव की नज़र में कविता का प्यार 'लव जिहाद' था और आस्मा की नज़र में शहजाद का प्यार भी 'लव जिहाद' जैसा ही कुछ था. देखो, गौरव और आस्मा के ख्याल कितने मिलते थे, लेकिन एक फर्क था दोनों में, गौरव हिन्दू था, आस्मा मुस्लिम.

तो कहानी ये थी कि गौरव ने अपनी बहिन को रोका, दो थप्पड़ जमाये और जान से मारने की धमकी दी. उधर आस्मा ने अपने भाई को समझाया,  मज़हब का वास्ता दिया, मौलवी साहब से शिकायत करने की बात की तो शहजाद का अंदर का मर्द जाग गया और उसने आस्मा को दो थप्पड़ जमाये और अगर मौलवी से कहा तो जान से मारने की धमकी दी. आखिर दोनों जगह मजहब को दरकिनार कर मर्द जीत गया, औरत ने थप्पड़ खाये.

गौरव का दोस्त समर था, अब समर नाम हिंदुओं का भी होता है, मुसलमानों का भी. तो आप कंफ्यूज न हो जाये इसलिए बता देता हूँ की ये समर एक मुस्लमान था जिसे आस्मा पसंद थी. तो गौरव ने समर की मदद ली. समर का स्वार्थ था वो तुरंत तैयार हो गया. प्लान ये था कि जब तक शहजाद गौरव की बहिन को नहीं छोड़ देता तब तक समर गौरव की मदद से आस्मा मतलब शहजाद की बहिन को छेड़ेगा. गौरव का आस्मा को छेड़ने का कुछ इरादा नहीं था,  न उसको परेशां करने का. उसकी जंग तो बस शहजाद के 'लव जिहाद' के खिलाफ थी, लेकिन समर को आस्मा पसंद थी और इस दसवीं में 3 बार फेल हुए आशिक़ ने आस्मा से प्यार का इज़हार कर चार थप्पड़ और दो अलग अलग कंपनी के सैंडिल भी खाये थे. अब वो आस्मा से बदला लेना चाहता था, तो उसने गौरव की मदद करने में हाँ कर दी. देखो, यहाँ मज़हब नहीं आया था, यहाँ समर का स्वार्थ आया था. उसे न तो शहजाद से मतलब था, न मौलवी की इश्क़ न करने की कहीं बातों से न ही कविता से.

शहजाद और कविता का इश्क़ परवान पे था, शहजाद क़स्बे का पढ़ने में सबसे तेज़ लड़का था और कविता ने तो दसवीं में जिला टॉप किया था, जबकि उसका बड़ा भाई गौरव दसवीं में दो बार फ़ैल होने के बाद तीसरी बार मुश्किल से पास हुआ था.  तो कविता और शहजाद ने दुनिया से दूर जाकर घर बसाने की सोची. प्लान खतरनाक था, भागने का था और दोनों की नज़र में ही बेवकूफी थी. लेकिन समाज ने बंधन बनाये थे, और बंधनों में दोनों घुट रहे थे. समाज की गलती को खुद की गलती- भागकर सही करने की ठानी. शहजाद ने अपने दोस्त समर कि मदद लेने की ठानी, लेकिन ये ऊपर वाला समर नहीं था, ये हिन्दू समर था. इसका बाप एक असफल नेता था जिसका थोडा बहुत दखल एक हिंदूवादी पार्टी में था. शहजाद और 'हिन्दू' समर एक ही स्कूल में पढ़े थे. 'हिन्दू' समर शहजाद की मदद दोस्ती की दो कसमें देने पे तैयार हो गया. समर स्कूल से ही होशियार नेता टाइप था, और उसे ये अपनी होशियारी पढ़े-लिखे शहजाद को दिखाने का अच्छा मौका था.

तो हुआ ये कि 'मुस्लिम' समर ने गौरव के साथ आस्मा को लगातार पांच-छ: दिन छेड़ा. आस्मा ने बात अपने बाप को बताई और बाप ने समाज में रसूख रखने वाले क़दीर मिआं को. अगले दिन गौरव और समर ने आस्मा को छेड़ा, पीछे से चार-पांच आदमियों ने उन्हें धर लिया. क़दीर मियाँ समझदार इंसान थे, पहले दोनों में चार-चार थप्पड़ जमाये और पेट में 2-2 डंडे घुसेड़े, फिर दोनों के नाम पूछे. मुस्लिम समर को पता था कि समर मुस्लिम और हिन्दू दोनों का नाम होता है, तो उसने अपना पूरा नाम, अपने नाजायज़ बाप के नाम के साथ बताया- समर अकबर खान. गौरव ने भी अपना नाम बताया- गौरव कुमार सिंह.

क़दीर मियाँ समझदार थे, पहले उन्होंने दोनों के पतलून उतरवाई और जब उन्हें यकीन हो गया तो 'मुस्लिम' समर को जाने दिया. तो मुख्य गुनहगार अपने मजहब के कारण जाने  दिया गया. क़दीर मियाँ ने और ज्यादा समझदारी दिखाई और बाकि लोगों के सामने एक जोरदार मजहबी भाषण दिया, और गौरव को जान जाने तक पीटने का हुक्म. क़दीर मियाँ को अपना चमकता भविष्य दिख रहा था.

लगभग उसी वक़्त की बात थी, शाम के लगभग चार-पांच बजे थे, घर में गौरव था नहीं, माँ सो रही थी तो कविता ने शहजाद के साथ भागने का फैसला लिया. 'हिन्दू' समर कविता और शहजाद को भगा रहा था, लेकिन बस स्टैंड पे आके सब पकडे गये. हुआ ये कि रास्ते में कविता के बाप की दुकान थी, और उन्होंने कहीं से मुंह पे कपडा बांधे कविता को पहचान लिया था. लोग कितना भी ढांपे, माँ-बाप बच्चों को पहचान ही जाते हैं. बस स्टैंड हनुमान मंदिर के पास था तो वहाँ अधिकतर हिंदुओं की दुकानें थी. कविता के बाप ने कविता को चार-छह: थप्पड़ मारे, 'हिन्दू' समर के बाप को बुलावा भेजा गया और शहजाद को पकड़ लिया गया. 'हिन्दू' समर का बाप नेता था. वो अपनी इज्जत समर के हाथों गंवाना नहीं चाहता था. उसने पहले तो समर को दो-चार थप्पड़ मारे फिर उसकी 'बचकानी' हरकत के लिए उसकी माँ को जिम्मेदार ठहराया. फिर बच्चा है इसलिए बख्स रहा हूँ कह के उसे वहाँ से भगा दिया. शहजाद से नाम पूछा गया, फिर 'हिन्दू' समर के ही उम्र के शहजाद की ये 'बचकानी' हरकत उन्हें बचकानी न लगी. उन्हें ये 'लव जिहाद' लगा. 'लव जिहाद' मार्किट में आया नया शब्द था, जिसे मीडिया ने हर दूसरे दिन अख़बारों में खबर दे के हवा दी थी. लोग कहते हैं ऐसा एक दाढ़ी वाले हिंदुत्ववादी नेता के कहने पे हो रहा था, लेकिन पक्का सबूत किसी के पास न था. समर के मोटे बाप महेश राना ने इस बड़ी हरकत के लिए शहजाद को पीटना शुरू किया, और ये तब तक चलता रहा जब तक की शहजाद मर न गया.

दो घंटे में शहजाद का मरना आग की तरह फ़ैल गया. क़दीर मियाँ ने अकेले में 'मुस्लिम' समर को बुलाया, और फिर सारी जमात को...और वहाँ कहानी ये निकली की गौरव आस्मा को छेड़ता था, 'मुस्लिम' समर ने अपने मजहब की लड़की को बचाया तो गौरव पीटने लगा. इतने में क़दीर मियाँ आ गये और गौरव को उसके किये का सबक सिखाया.... और उसके बदले में शहजाद को मार दिया गया. हाँ, जैसा की अक्सर होता है, मर्द को औरत का सामाजिक मामलों में दखल देना बिलकुल पसंद नहीं होता, तो यहाँ आस्मा का कथन लेना किसी ने भी ज़रूरी नहीं समझा.

'हिन्दू' समर के बाप महेश राना ने किसी नेता को फ़ोन किया और ठीक ढाई घंटे बाद ये कहानी आई- शहजाद 'लव जिहादी' था ये सब मौलवी साहब करवा रहे हैं और इसे रोकना बहुत ज़रूरी है. आज ये कविता के साथ हुआ है कल आपकी बहू -बेटियों के साथ भी हो सकता है. 'हिन्दू' समर ने अपने बाप चार थप्पड़ों को याद रखते हुए 'हाँ' में सर हिलाया. फिर जो हुआ खुद एक कहानी है.

चार दिनों तक शमलीपुर जलता रहा. अख़बारों में दो महीने यही मुद्दा छाया रहा. कई नेता भाषण देते रहे. 'माइनॉरिटी' हितेषी प्रदेश सरकार ने दो भाषण दिए और दंगा पीड़ितों के लिए दो महीने तक सात तम्बू लगाये, और तीसरे महीने बुलडोजर से उखाड़ फेंके. फिर क़दीर मियाँ का सम्मान किया गया. क़दीर मियाँ ख़ुशी से और मोटे हो गये. महेश राना अगले चुनाव में विधायकी के पक्के उम्मीदवार हैं और दाढ़ी वाले नेता के बगल में कुर्सी पे बैठ लेने से फूले नहीं समा रहे हैं.

'हिन्दू' समर और 'मुस्लिम' समर का कहानी में अब कोई मतलब नहीं है. हाँ, उन्होंने दंगा पीड़ितों को अस्पतालों फल बाँटते हुए बहुत फ़ोटो खिचवाई और अख़बारों में इतना आये जितना न तो जिला टॉप करने वाली कविता आई थी और न ही कॉलेज टॉप करने वाला शहनाज़ कभी आया था. दोनों ही नेता के रूप में अपना उभरता कैरियर देख रहे हैं.

सुना है, कविता और आस्मा साथ मिलकर शहजाद और गौरव की लाशें ढूंढते हैं और कभी-कभी एक दूसरे से पूछते हैं कि-'गलती किसी थी'.

आप तो इस संभ्रांत समाज के पढ़े लिखे लोग हैं, आपने तो पढ़ ली कहानी. आप बताइये न-'गलती किसकी थी?'
[ चित्र मुज़फ्फरनगर रिलीफ कैंप में मरते नवजातों का है. हाँ, मज़हब मत पूछिए, शिशुओं को अपना मज़हब पता नहीं होता. ]

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